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________________ अन्त्य संस्कार विधि का शास्त्रीय स्वरूप ...323 हैं और जीव अग्नि में तपाए हुए स्वर्ण की तरह निर्मल हो ऊर्ध्वगामी बनता है । शिक्षा और निष्कर्ष की दृष्टि से देखा जाए, तो यह प्रेरणा मिलती है कि धर्म एवं कर्म रूपी अग्नि के सहारे हर व्यक्ति ऊपर उठ सकता है। 33 अन्त्येष्टि के अवसर पर होम (यज्ञ) क्यों ? हिन्दू धर्म यज्ञ - आहुतियों की प्रधानता वाला धर्म है। इस परम्परा के प्राय: कृत्य यज्ञ पूर्वक ही किए जाते हैं। अन्त्येष्टि के अवसर पर क्रियान्वित यज्ञ का एक कारण यह मान सकते हैं कि भारतीय- आर्य अग्नि को पृथ्वी पर स्थित देवदूत तथा देवताओं को दी हुई आहुतियों को उन तक पहुँचाने वाला समझते हैं। वे भौतिक वस्तुएँ, जिनसे हव्य बनता है, वे स्थूल रूप में स्वर्गस्थ देवताओं तक नहीं पहुँच सकती हैं अतः अग्नि की आवश्यकता महसूस हुई। साथ ही मनुष्य की मृत्यु होने पर उसे स्वर्ग भेज देने की कल्पना जागृत हुई और वह अग्नि तथा होम द्वारा ही संभव थी, अतः यज्ञ के मूल में यह धारणा सबलतम प्रतीत होती है, जो धर्म भाव से भी ओत-प्रोत है और यज्ञीय-आहुति के रूप में शव को स्वर्ग पहुँचाती है। यज्ञ का दूसरा कारण यह माना गया है कि जिस प्रकार मेवा, मिष्ठान्न, घृत, औषधि आदि कीमती एवं आवश्यक वस्तुओं को वायु शुद्धि के लिए वायु-भूत बनाकर सर्व-स - साधारण को निरोग एवं परिपुष्ट बनाने के लिए बिखेर दिया जाता है, उसी प्रकार मानव- वैभव की समस्त विभूतियों को विश्वमंगल के लिए बिखेरते रह जाए - यही तात्विक यज्ञ है। तीसरी मान्यता यह है कि शव संस्कार के समय मन्त्रोच्चार पूर्वक आहुतियाँ डाली जाती हैं, जो अपवित्र मृत शरीर को पवित्र बनाती है। साथ ही होम में केवल वह वस्तु होमी जाती है, जो पवित्र हो । अस्थि, माँस का शरीर बेशक अपवित्र है, परन्तु जब उसमें मन्त्रशक्ति, विचारशीलता का समन्वय किया जाता है, तो वह पवित्रता से ओत-प्रोत हो जाता है। चौथा मन्तव्य यह है कि चिता एक प्रकार से यज्ञ वेदी ही है, इसलिए उसमें वे ही लकड़िया काम में आती हैं, जो आमतौर से यज्ञ कार्यों में प्रयुक्त होती हैं। इससे भी अन्त्येष्टि के प्रसंग पर यज्ञ किया जाना सार्थक सिद्ध होता है। कपाल क्रिया के मूलभूत उद्देश्य - मस्तिष्क जीवन का वास्तविक केन्द्र संस्थान है। उसमें जैसे विचार या भाव उठते हैं, उसी के अनुकूल जीवन की दिशा निर्धारित होती है और उत्थान - पतन का संयोग वैसा ही बन जाता है ।
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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