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अन्त्य संस्कार विधि का शास्त्रीय स्वरूप... 311
की पुष्टि करते हुए जयसेन प्रतिष्ठापाठ में लिखा गया है-जिस वंश वाला यजमान बिम्ब प्रतिष्ठा करवा रहा है, उसके वंश, कुल एवं गोत्र में उस दिन से अशौच नहीं माना जाता। यहाँ जयसेन स्वामी का यह आशय रहा होगा कि नान्दी विधान के अनन्तर यजमान के अन्तर में राग-द्वेष का शमन हो जाता है, जिस कारण मानसिक अशौच उत्पन्न नहीं होता है। भरत चक्रवर्ती पुत्रोत्पत्ति होने पर भी आदिनाथ प्रभु के दर्शनार्थ जाते हैं और इसका यह समाधान दिया गया है कि तिरेसठ शलाका पुरुषों को सूतक एवं मरण सूतक का दोष नहीं लगता है।
उक्त व्यक्तियों से भिन्न जो गृहस्थ हैं, उन्हें सूतक आदि का दोष अवश्य लगता है। आचार्य वट्टेकर ने दायक के दोषों का कथन करते हुए कहा है- जो व्यक्ति मृतक को श्मशान में जलाकर आया है वह आहार दान हेतु निषिद्ध है। पं. आशाधर ने भी इस बात का समर्थन किया है। 10 मोक्षपाहुड की टीका में कहा गया है कि दरिद्री और सूतक वाली स्त्री के घर का आहार विशेष रूप से ग्रहण न करें। श्रावकों के लिए भी कहा गया है कि अणुव्रती श्रावकों को भोजन की शुद्धि बनाये रखने के लिए सूतक गृह का भोजन त्याग करना चाहिए। 11 इस प्रकार सूतक काल की अशुद्धि शास्त्र प्रमाणों से सिद्ध है।
सूत के समय अशुद्धि मानने का मुख्य कारण यह है कि जब बालक का जन्म होता है तब माता की योनि से नाल भी बाहर आती है, उसमें अनंत जीवों का वास रहता है, उसे भूमि में गड़वाने से अनंत जीवों की हिंसा का दोष लगता है। इस पाप के कारण भी विशेष अशौच होता है। इसी प्रकार मृतक शरीर को अग्निदाह कराने से उस शरीराश्रित अनंत जीवों की हिंसा का दोष लगता है। ये दोनों क्रियाएं श्रावक को आवश्यक रूप से करनी पड़ती है इससे मन मलिन होता है और उससे अशौच की उत्पत्ति होती है। 12
यह उल्लेख्य है कि अशौच समय के साथ ही दूर होता है अत: सभी को सूतक दोष का निवारण करना ही चाहिए।
लोक व्यवहार में प्रचलित अशौचकाल की तालिका निम्न प्रकार
दृष्टव्य है 13