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310... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
पुतला निर्माण सम्बन्धी विधि
विधिमार्गप्रपा एवं आचारदिनकर में निर्देश है कि रोहिणी, विशाखा, पुनर्वसु, उत्तराषाढ़ा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराभाद्रपद - इन छः नक्षत्रों में किसी का मरण हो जाए, तो मृतक की प्रतिकृति के दर्भमय दो पुतले बनाना चाहिए। ज्येष्ठा, आर्द्रा, स्वाति, शतभिषा, भरणी, आश्लेषा - इन छः नक्षत्रों में किसी की मृत्यु हो जाए, तो एक भी पुतला नहीं बनाना चाहिए। शेष पन्द्रह नक्षत्रों में किसी का कालधर्म हो जाए, तो एक पुतला निर्मित करना चाहिए |
उक्त वर्णन से यह भी सुस्पष्ट कि जैन परम्परा में अन्तिम आराधना एवं अन्त्यसंस्कार के लिए शुभ नक्षत्र आदि को आवश्यक नहीं माना है, केवल प्रेत क्रिया एवं तृण आदि संग्रह के लिए शुभ वार आदि का होना अनिवार्य बताया है तथा पुतला सम्बन्धी विधान हेतु कुछ नक्षत्रों का निरूपण किया है। सूतक काल कब और क्यों?
सामान्यतया बालक-बालिका के जन्म से होने वाली अशुद्धि को सूतक कहते हैं यही सुआ कहा जाता है । परिवार में व्यक्ति के मरण के पश्चात् उत्पन्न हुई अशुद्धि को मरण सूतक कहते हैं । मरण सूतक को पातक भी कहा जाता है।
जैन संस्कृति में जन्मसूतक एवं मरण सूतक का विवेक भोजन शुद्धि को लेकर रहा हुआ है, किन्तु वर्तमान में कुछ लोग इस बात पर बिल्कुल भी श्रद्धा नहीं रखते हैं उनकी मिथ्या विचारणा के निवारण हेतु डॉ. श्रेयांसकुमार जैन ने लौकिक रूप से मान्य विधान की प्रस्तुति इस प्रकार की है
भगवतीआराधना की विजयोदया टीका के अभिमतानुसार जिसके घर पर जनना शौच अथवा मरणा शौच है उस मालिक द्वारा प्रदत्त वसति दायक दोष से दुष्ट है। अशौच वाले व्यक्ति को वसति प्रदान करने का भी निषेध किया गया है।
प्रायश्चित्तसंग्रह के अनुसार तीन दिन का बालक, युद्ध में मरणको प्राप्त, अग्नि आदि के द्वारा मरण को प्राप्त, जिनदीक्षित, अनशन मरण प्राप्त व्यक्तियों का सूतक नही लगता है। यहाँ अग्नि द्वारा मरण प्राप्त व्यक्ति का यह अर्थ है, जो किसी अग्निकाण्ड में फंस गया हो या बिजली गिरने से अचानक मृत्यु हुई हो, उसका मरण सूतक नहीं लगेगा, किन्तु जिसने अग्नि में जलकर आत्मघात किया हो, उसका मरण सूतक अवश्य लगता है। इसी क्रम