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________________ 304...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन वैदिक परम्परा में व्रतारोपण संस्कार के उल्लेख प्राप्त नहीं होते हैं। उपनयन का अपरनाम व्रतादेश माना गया है। इस संस्कार से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को द्विजत्व की प्राप्ति होती है यानी द्वितीय जन्म होता है। विधिवत यज्ञोपवीत धारण करना इस संस्कार का मुख्य अंग है। यह संस्कार हो जाने पर गुरु बालक के कन्धों तथा हृदय का स्पर्श करते हुए कहता है- “मैं वैदिक एवं लौकिक शास्त्रों का ज्ञान करवाने वाले वेद व्रत और विद्या व्रत को तुम्हारे हृदय में स्थापित कर रहा हूँ। तुम्हारा चित्त, मन या अन्त:करण मेरे अन्त:करण का ज्ञान मार्ग में अनुसरण करता रहे अर्थात जिस प्रकार मैं तुम्हें उपदेश करता रहूँ, उसे तुम्हारा चित्त ग्रहण करता चले। शास्त्र उपदेशों को तुम एकाग्र मन से समाहित होकर सुनो और ग्रहण करो।" यह उपदेश व्रताचरण या व्रतारोपण का मूल बीज रूप ही है। इसे व्रत धारण विधि कह सकते हैं। जैन परम्परा के अनुसार भी इस संस्कार में व्रतादेश विधि सम्पन्न की जाती है। प्राचीनकाल में व्रत धारण या व्रताचरण की शिक्षाएँ केवल वाणी से ही नहीं दी जाती थी, प्रत्युत गुरुजन तत्परता पूर्वक शिष्यों से तदनुरूप आचरण भी करवाते थे। सनातन परम्परा में व्रताचरण रूप पौषध, उपधान, प्रतिमा आदि का भी सूचन नहीं मिलता है। यदि मुनि जीवन की दृष्टि से देखें, तो वानप्रस्थाश्रम के परिप्रेक्ष्य में संन्यास धर्म का विवेचन विस्तार के साथ प्राप्त होता है। बौद्ध परम्परा में त्रिशरण ग्रहण के रूप में सम्यकत्वव्रत, अष्टशील के रूप में बारहव्रत एवं पौषधव्रत, समत्ववृत्ति के रूप में सामायिक व्रत की अवधारणा स्पष्ट रूप से उपलब्ध होती है। ज्ञातव्य है कि अष्टशील को पंच सामान्यशील एवं तीन उपोषथ शील भी कहा गया है। . इस प्रकार हम पाते हैं कि जैन, वैदिक एवं बौद्ध परम्परा में व्रतारोपण संस्कार का महत्त्व न्यूनाधिक रूप से अवश्य रहा हुआ है। जैन एवं बौद्ध सहवर्ती परम्परा होने के कारण व्रतारोपण की दृष्टि से दोनों में अधिक समरूपता है। इस संस्कार का सविस्तृत विवेचन खण्ड-3 में करेंगे।
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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