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________________ अध्याय - 16 व्रतारोपण संस्कार विधि का सांकेतिक स्वरूप भारतीय संस्कृति अध्यात्म संस्कृति के रूप में विश्व विख्यात है। यहाँ व्रत, नियम आदि का विशिष्ट महत्व रहा है। व्रत शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न स्थितियों एवं परम्पराओं में विभिन्न रूपों में होता है। प्रस्तुत अध्याय में व्रत का अर्थ हैविरति, संयम, वैराग्य भाव उत्पन्न करने वाला नियम विशेष, प्रतिज्ञा विशेष। आरोपण का अर्थ है-स्थापित करना, आरूढ़ करना, स्वीकार करवाना अर्थात व्रतग्राही साधक को अपनी इच्छानुसार किसी नियम में आबद्ध करना अथवा संकल्पित नियम में स्थापित करना व्रतारोपण है तथा परम्परागत रूप से प्रचलित विधि-विधान पूर्वक उसे सम्पन्न करना व्रतारोपण संस्कार है। यह अनुभूत सत्य है कि महानता की मंजिल पर मनुष्य एकाएक नहीं पहुँच जाता, उसके लिए एक-एक करके सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती है। श्रेष्ठ प्रवृत्तियों को आचरण एवं स्वभाव रूप बनाने के लिए व्रतशील होकर चलना पड़ता है अत: छोटा सा व्रत भी जीवन विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। ___ जैन एवं वैदिक-दोनों परम्पराओं में व्रताचरण से प्रतिज्ञाबद्ध होने के लिए वीतरागी पुरूष अथवा कुछ देव शक्तियों को साक्षी करके व्रत शील बनने की घोषणा की जाती है। उन्हें अपने प्रेरक, निरीक्षक और नियंत्रक के रूप में स्वीकार किया जाता है। जैन धर्म में इसे देववन्दन विधि कहते हैं। __ जैन धर्म की श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में व्रतारोपण संस्कार के अन्तर्गत गृहस्थ श्रावक-श्राविका से सम्बन्धित निम्नोक्त विधि-विधानों का अन्तर्भाव होता है और ये वर्तमान में प्रचलित भी हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं __ 1. सम्यक्त्व व्रतारोपण संस्कार विधि 2. बारह व्रतारोपण संस्कार विधि 3. सामायिक व्रतारोपण संस्कार विधि 4. पौषध व्रतारोपण संस्कार विधि 5. उपधान तप विधि 6. उपासक प्रतिमा वहन विधि श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा एवं दिगम्बर परम्परा में उपधान तप का प्रचलन नहीं है। श्वेताम्बर मान्य अन्य सभी विधि-विधान व्रतारोपण की कोटि में स्वीकार किए गए हैं।
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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