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विवाह संस्कार विधि का त्रैकालिक स्वरूप ... 299
सामान्यतः वर-कन्या का हस्त मिलाप करने हेतु उनके हाथों में लेप किया जाता है। वह लेप करने योग्य सामग्री तीनों परम्पराओं में भिन्न-भिन्न कही गई है।
• विवाह लग्न के समय हवन किए जाने की अवधारणा जैन एवं हिन्दू दोनों धाराओं में समान सी है।
इस प्रकार विवाह संस्कार का तुलनात्मक अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि इस संस्कार विधि में पूर्वोक्त कृत्यों का अस्तित्व आज किस रूप में है और कितने कृत्य नवीनीकरण के रूप में जुड़ गए हैं ?
उपसंहार
पाणिग्रहण संस्कार दो आत्माओं का मंजुल मिलन है। भारतीय संस्कृति इस संस्कार के माध्यम से संयुक्त होने वाले दो शरीरधारियों के मिलन को दो आत्माओं का सम्बन्ध मानती है, यही इस संस्कार की अपनी विशिष्टता है। इसी सम्बन्ध को लेकर नारी को अर्द्धांगिनी कहा गया है। वैदिक विचारणा में किसी पुरूष को तब तक सम्पूर्ण नहीं माना जाता, जब तक कि उसके साथ उसकी पत्नी न हो, क्योंकि यज्ञादि कार्यों में दम्पति का होना अनिवार्य माना गया है। दूसरा तथ्य यह है कि जीवन की प्रत्येक स्थिति में दुःख-सुख में साथ निभाने वाली पत्नी पति से एकाकार होती है। सुयोग्य पति-पत्नी की हर एक टीस, हर एक चुभन एक-दूसरे को प्रभावित करती है अतः एक के बिना दूसरा अपूर्ण होता है, अतः किसी की भी उपेक्षा करना अन्याय है।
यदि हम पूर्वोक्त वर्णन के आधार पर इस संस्कार की उपादेयता के सम्बन्ध में विचार करें, तो कई दृष्टियों से इस संस्कार की उपयोगिता परिलक्षित होती है।
सामान्यतया विवाह सुसभ्य समाज के विकास का सूचक है। यदि किसी भी समाज को स्वच्छंद यौन सम्बन्धों से उत्पन्न होने वाली विकृतियों से बचाना हो और नैतिक मूल्यों की स्थापना करनी हों, तो विवाह एक सुदृढ़ नींव के समान है। विवाह-संस्था स्त्री-पुरूष की वासनात्मक पशु वृत्ति एवं कामोत्पादक हीन वृत्ति को सीमित कर सामाजिक सुव्यवस्था प्रदान करती है । इस तरह वह व्यक्ति को अध:पतन की ओर जाने से रोकती है। यह एक मानवीय संस्था है, जिसका उद्देश्य दाम्पत्य जीवन में संयत मार्ग का अनुसरण करना है। वस्तुतः