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विवाह संस्कार विधि का त्रैकालिक स्वरूप ...265 निर्धन, दूर देश में रहने वाला, योद्धा, वैरागी और कन्या से तीन गुना अधिक उम्र वाला हो, वह विकृत वर है।24' __ इसका आशय यह है कि विकृत कुल वाली कन्या के साथ कुलीन वर का और कुलीन वर के साथ विकृत कन्या का सम्बन्ध कभी भी नहीं करना चाहिए। अपनी कन्या को उच्चकुल में ही देनी चाहिए और उच्चकुलीन कन्या को ही पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करना चाहिए, परन्तु दोनों प्रकार के विकृत कुल वाले और दोनों विकृत वर-कन्या परस्पर विवाह कर सकते हैं। __ इस सम्बन्ध में यह भी निर्देश दिया गया है कि कुल, शील, स्वामी, विद्या, धन, शरीर और उम्र-ये सात गुण वर में अवश्य देखने चाहिए। उसके बाद ही कन्या देनी चाहिए।25
जैन-ज्योतिष के अनुसार कन्या और वर का सम्बन्ध पाँच शुद्धियाँ देखकर करना चाहिए। पाँच शुद्धियों के नाम ये हैं- 1. राशि 2. योनि 3. गण 4. नाड़ी और 5. वर्ग।
उक्त वर्णन से एक नवीन तथ्य यह प्रकट होता है कि विवाह संस्कार के पूर्व वैवाहिक जीवन की सम्पूर्ण सफलता के लिए कुछ बातों पर अवश्य ध्यान दिया जाना चाहिए। जैसे-कन्या का कुल कैसा हो? कन्या और वर किन-किन लक्षणों से युक्त हों? इत्यादि। इस प्रकार जैन-विचारणा में विवाह सम्बन्ध को लेकर अति महत्त्वपूर्ण तथ्य कहे गए हैं। विवाह के मुख्य प्रकार
जैन एवं वैदिक परम्परा में प्रमुख रूप से विवाह दो प्रकार के बताए गए हैं- 1. धर्म्य विवाह और 2. पाप विवाह। इन्हें प्रशस्त और अप्रशस्त-विवाह भी कह सकते हैं। प्रशस्त और अप्रशस्त विवाह भी चार-चार प्रकार के निर्दिष्ट हैं, इस तरह विवाह के आठ प्रकार होते हैं।27।
___धर्म्य विवाह के चार भेद ये हैं- 1. ब्राह्म विवाह 2. प्राजापत्य विवाह 3. आर्ष विवाह और 4. दैवत विवाह। ये चारों विवाह माता-पिता की आज्ञा से होते हैं, इसलिए लौकिक-व्यवहार में ये धर्म्य-विवाह गिने जाते हैं। ____ पाप विवाह के चार भेद इस प्रकार हैं- 1. गांधर्व विवाह 2. आसुर विवाह 3. राक्षस विवाह और 4. पैशाच विवाह। ये चारों विवाह अपनी इच्छानुसार किए जाते हैं, इसलिए ये पाप विवाह रूप माने जाते हैं।