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262...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन में रखा जा सकता है। भारतीय परम्परा में भौतिकता महत्त्वपूर्ण नहीं है। इस संस्कृति में सबसे विलक्षण बात यह देखने को मिलती है कि किसी भी वस्तु या तत्त्व का सकारात्मक एवं नकारात्मक दृष्टिकोण से तथा इहलौकिक एवं पारलौकिक ध्येय से प्रतिपादन किया जा सकता है। कहीं भी किसी भी एक पक्ष को नहीं स्वीकारा गया है। यही कारण है कि भारतीय परम्परा सभी में सर्वोच्च रही है तथा इस परम्परा में मानवीय परिवर्तन के विविध तत्त्व रहे हुए हैं और वे ही सांस्कृतिक बदलाव में प्रमुख कारण बनते हैं।
समष्टि रूप में कहा जा सकता है कि विवाह सांसारिक अव्यवस्था को दूर करने वाला सर्वोत्तम संस्कार है। इसी से व्यक्ति सुसंस्कृत, सभ्य एवं धर्मात्मा बनता है। इस संस्कार के माध्यम से जीवन में एकदम परिवर्तन आ जाता है। पुरूष और नारी-दोनों को परस्पर सबसे अधिक प्रिय और आत्मीय जीवनसाथी मिल जाता है, जो हर स्थिति में जीवन भर साथ निभाता है। इस संस्कार के माध्यम से दोनों अपना-अपना दायित्व समझने लगते हैं। इस दायित्व-बोध तले दोनों एक-दूसरे के प्रति, परिवार के प्रति, समाज के प्रति एवं राष्ट्र के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझने लगते हैं और उसे निभाने लगते हैं। उनकी पहचान भी बदल जाती है। वे युवक एवं युवती न रहकर पति-पत्नी कहलाने लगते हैं। विवाह सम्पन्न करने से पहले क्रमश: वाग्दान(सगाई), प्रदान (कन्याप्रदान), वरण (वर द्वारा वधू को स्वीकृत करना), ग्रन्थि बंधन, पाणिग्रहण(हथलेवा) और सप्तपदी(भांवर) होते हैं। इन क्रियाओं के बाद वर और वधू पति-पत्नी के रूप में अपने भावी जीवन के आनन्द और शांति के लिए सात-सात वचन रखते हैं और उन नियमों को सबके समक्ष जीवन भर पालन करने का वचन देते हैं। ये सब प्रक्रियाएँ भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विशिष्ट महत्त्व रखती हैं। इस प्रकार भारतीय चिन्तनधारा में वैवाहिक संस्कार के अनेक हेतु स्वीकार किए गए हैं। इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेख्य है कि हिन्दू समाज में तीन प्रकार के ऋण प्रचलित हैं- पितृऋण, ऋषिऋण एवं देवऋण। इस संस्कार द्वारा पितृऋण से तो मुक्ति मिलती ही है, साथ ही ऋषिऋण एवं देवऋण से भी आंशिक रूप से विमुक्ति प्राप्त होती है। इस दृष्टि से विवाह संस्कार को दायित्त्व के रूप में भी आंका जा सकता है।