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________________ उपनयन संस्कार विधि का आध्यात्मिक स्वरूप ...219 भिक्षाटन की उपयोगिता- उपनयन संस्कार के उपरान्त भिक्षा माँगने की क्रिया की जाती है। यज्ञोपवीतधारी माता-पिता आदि परिजनों अथवा उपस्थित सम्बन्धियों से भिक्षा मांगता है। वे लोग कुछ धन, अन्न आदि देते हैं। वह सब गुरु के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है। निरपेक्ष दृष्टि से चिन्तन करें तो व्यक्तिगत लाभ के लिए केवल अन्धे, अपाहिज, असहाय एवं असमर्थों को ही भिक्षा लेने का अधिकार है, बाकी समर्थ और स्वस्थ व्यक्ति के लिए भीख माँगना अत्यन्त लज्जा की बात है, परन्तु यज्ञोपवीत-संस्कार के समय प्रत्येक शिष्य को भिक्षा मांगनी होती है, इस विषय में किसी को भ्रम पालने की आवश्यकता नहीं है। यह भिक्षा अपने लिए या स्वार्थ के लिए नहीं, वरन् गुण एवं परमार्थ-प्रयोजन के उद्देश्य से माँगी जाती है। यह धर्म कर्तव्य है। सार्वजनिक धर्मकार्यों की पूर्ति एक व्यक्ति नहीं कर सकता, फिर कोई कर भी दें, तो उससे जनसम्पर्क का उद्देश्य पूरा नहीं होता, इसलिए धर्मकार्यों में जन-रूचि जगाने के लिए प्रत्येक का सहयोग आवश्यक होता है। यह सहयोग श्रम एवं धन के रूप में एकत्रित करना होता है अत: यज्ञोपवीत के समय भिक्षा मांगना परमार्थकारी है। इस विधि को एक अभिनय के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। प्राचीनकाल में बालकों की शिक्षा का भार उनके अभिभावकों पर ही नहीं पड़ता था, वरन् सारा समाज उसे मिल-जुलकर वहन करता था। आज वह उपयोगी परम्परा नष्ट हो गई है, फिर भी उसकी उपयोगिता का स्मरण कराने के लिए यह भिक्षाटन किसी अपेक्षा से उपादेय ही है। जिनोपवीत धारण के मार्मिक रहस्य- उपनयन संस्कार को जिनोपवीत एवं यज्ञोपवीत संस्कार भी कहा जाता है। जिनोपवीत एक विशेष धागे से बना हुआ होता है, जिसे व्यावहारिक भाषा में जनेऊ कहा जाता है। इस संस्कार द्वारा वटुक का जनेऊ से धार्य धारक भाव होना एक अनिवार्य शर्त है। आखिर यज्ञोपवीत धारणा के पीछे क्या रहस्य है ? यह उल्लेखनीय विषय है। हाल ही में इटली में एक वैज्ञानिक शोध सम्पन्न हुआ है, जिसमें यज्ञोपवीत के महत्त्व के बारे में व्यापक छान-बीन की गई है, जिसका निष्कर्ष है कि जनेऊ धारण करने वाले व्यक्ति, शरीर के स्वाभाविक शौच आदि कर्म करने के समय अपने
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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