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________________ 212... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन परमार्षिलिंगभागीभव, “परमनिस्तारकलिंगभागीभव, परमेन्द्रलिंगभागीभव, परमराज्यलिंगभागीभव, परमार्हन्त्यलिंगभागीभव, परनिर्वाणलिंगभागीभव।” यज्ञोपवीत पहनने का मन्त्र- "ॐ नमः परमशांताय शान्तिकराय पवित्री कृतार्हं रत्नत्रयस्वरूपं यज्ञोपवीतं दधामि मम गात्रं पवित्रं भवतु अर्हं नमः स्वाहा।”80 वैदिक - वैदिक परम्परा में उपनयन संस्कार विधि का निम्न स्वरूप उपलब्ध होता है। यहाँ उपनयन विधि प्राचीन स्वरूप की दृष्टि से कही जा रही है, वर्तमान में भी यह स्वरूप मौजूद है, परन्तु क्रियाकाण्डों में कुछ परिवर्तन अवश्य आए हैं। पूर्वकाल में उपनयन संस्कार का रूप अत्यन्त साधारण था। उस समय वेदाध्ययन एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक क्रमबद्ध रूप में चलता था। पिता स्वयं ही गुरु का कार्य करता था अतः उनके लिए की जाने वाली औपचारिकताएँ स्वभावतः सीमित ही थीं। जब वैदिक काल का अन्त होने लगा तब उपनयन संस्कार दुरूह सा हो गया तथा कर्मकाण्ड के अनेक अंग विकसित हो गए। गृह्यसूत्र उपनयन संस्कार में विकसित स्वरूप के विधि-विधानों का विशद वर्णन करते हैं। 81 विकास क्रम में अनेक अवैदिक तथा लौकिक तत्त्व भी इसमें समाविष्ट हो गए। प्रारम्भिक कृत्य - पूर्वकाल में उपनयन संस्कार का प्रारम्भ करने के लिए एक मण्डप का निर्माण किया जाता था। 82 संस्कार के एक दिन पूर्व अनेक पौराणिक विधि-विधान किए जाते थे। मंगल के देवता गणेश की आराधना तथा श्री, लक्ष्मी, मेधा, सरस्वती आदि देवियों का पूजन किया जाता था। 83 उपनयन के पूर्व रात्रि को बालक के शरीर पर हल्दी के द्रव का लेप किया जाता था और उसकी शिखा से एक चाँदी की अँगूठी बाँध दी जाती थी। 84 इसके पश्चात् उसे सम्पूर्ण रात्रि पूर्ण मौन रहकर व्यतीत करनी होती थी। यह एक रहस्यपूर्ण विधि थी, जो बालक को द्वितीय जन्म के लिए प्रस्तुत करती थी। यहाँ पीतवर्ण गर्भ के वातावरण का दृश्य उपस्थित करता तथा पूर्ण मौन अवाक् भ्रूण का सूचक था। सहभोज - दूसरे दिन प्रात: काल माता और पुत्र साथ - साथ भोजन करते ।
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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