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________________ 200...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन यह बात नहीं कि शास्त्रों में अस्पृश्यता के उल्लेख नहीं मिलते हैं, पर उनका उद्देश्य भी शूद्र वर्ण का बहिष्कार नहीं है, वरन् जो व्यक्ति जिस समय किसी कारणवश दूषित वातावरण से संलग्न हो जाता है, वह उस अवस्था में अस्पृश्य मान लिया जाता है, जैसे-चिकित्साशास्त्र के अनुसार कुष्ठरोग, क्षय रोग, प्लेग, हैजा आदि के रोगियों को भी अस्पृश्य माना गया है क्योंकि उनके सम्पर्क से ये रोग अन्य व्यक्तियों को भी लग सकते हैं। इसी प्रकार रजस्वला होने पर घर की स्त्रियों को तथा जन्म-मरण का सूतक लगने पर सगे-सम्बन्धियों को कुछ काल के लिए अस्पृश्य बतलाया है, क्योंकि उस समय शारीरिक और मानसिक दृष्टि से उनका सम्पर्क हमारे लिए हानिप्रद हो सकता है। शूद्रों के सम्बन्ध में भी यही नियम लागू होता है। उनमें जो व्यक्ति सदैव गन्दे रहते हैं, शराब आदि का नशा करते हैं, अश्लील कथोपकथन करते हैं, उनके लिए ही संस्कार कर्म का निषेध है। यदि ये दुर्गुण किसी ब्राह्मण-नामधारी में हों तो वह भी उसी प्रकार अस्पृश्य माना गया है और उसे शूद्र के तुल्य कहा गया है। सुस्पष्ट है कि व्यक्ति की उच्चता एवं नीचता का प्रमुख आधार उसके गुण-कर्म ही हैं। यदि व्यक्ति का आचरण शुद्ध, पवित्र और निर्दोष है, तो शूद्र जाति में उत्पन्न हुआ व्यक्ति भी यज्ञोपवीत आदि संस्कारों का अधिकारी बन सकता है। दूसरा तथ्य यह विचारणीय है कि दोषों का निराकरण करने के लिए ही संस्कारों का प्रावधान किया गया है, जिससे मनुष्य को आरम्भ से ही शिष्टता और सदाचार का अभ्यास हो जाए। उपनयन संस्कार का कर्ता कौन? श्वेताम्बर परम्परा जैन ब्राह्मण या क्षुल्लक को यह संस्कार सम्पन्न करवाने का अधिकार प्रदान करती हैं। दिगम्बर परम्परा इस संस्कार का अधिकारी आचार्य, पिता या पितृ-कुलोत्पन्न किसी व्यक्ति को मानती है।58 वैदिक परम्परा में मूलतः पिता को इस संस्कार का अधिकारी माना गया है। परवर्तीकाल में ब्राह्मण आचार्य को यह अधिकार दिया गया या ऐसा देखा जाता है।59
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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