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उपनयन संस्कार विधि का आध्यात्मिक स्वरूप के वेश को धारण किए बिना अणुव्रत आदि का परिपालन करता है, वह अदीक्षा ब्रह्मचारी है।
4. गूढ़ ब्रह्मचारी - जिसने मुनि-पद को धारण कर लिया हो किन्तु बन्धु के आग्रह से या परिषह सहन न होने के कारण से अथवा राजा के आग्रह से मुनि धर्म को छोड़कर गृहस्थ धर्म स्वीकार करता है, वह गूढ़ ब्रह्मचारी कहा जाता है। 5. नैष्ठिक ब्रह्मचारी जो मस्तक को मुण्डित रखता है, सफेद वस्त्रखंड पहनता है, कौपीन रखता है, भिक्षावृत्ति करता है और देवता का पूजन करता है, स्त्री को स्वीकार नहीं करता है, उसे नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहते हैं । नैष्ठिकब्रह्मचारी ग्यारह प्रकार के कहे गए हैं और उनकी पहचान के लिए क्रमशः से एक से ग्यारह यज्ञोपवीत दिए जाते हैं।
इन पाँच में से भी दो प्रकार के विद्यार्थी मुख्य हैं - एक गुरुकुल में रहकर विद्याभ्यास करने वाले तथा दूसरे गृहवास में रहकर प्रतिमा एवं व्रतों का पालन करने वाले। इनमें से प्रथम नैष्ठिक - ब्रह्मचारी की पहचान के लिए ग्यारह जनेऊ होती हैं और दूसरे नैष्ठिक - ब्रह्मचारी के दो ही जनेऊ होती हैं। जिनोपवीत के शास्त्रोक्त अधिकारी
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जैन परम्परा में यज्ञोपवीत धारण करने के योग्य तीन प्रकार के अधिकारी (पात्र) बताए गए हैं। प्रथम प्रकार के अधिकारी वे हैं, जो ब्रह्मचर्यव्रत को धारण कर एवं गुरुकुल में रहकर विद्याभ्यास करने के अभिलाषी हों। दूसरे प्रकार के पात्र वे हैं, जो गुरुकुल में रहने के इच्छुक नहीं है और किसी विशेष कारण से अपना गृह छोड़ना नहीं चाहते हैं, वे भरत महाराजा आदि के समान गृह पर रहकर यज्ञोपवीत धारण करें और दान-पूजा आदि कार्यों में दत्तचित्त रहें। तीसरे प्रकार के अधिकारी वे हैं, जिन्होंने पूर्वकृत पुण्योदय से उच्चगोत्र, विशुद्ध कुल और उत्तम जाति को प्राप्त किया है, परन्तु मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यादृष्टि हो रहे हैं, ऐसे जीवों को धर्म देशना आदि द्वारा सत्य प्रतीति हो जाए तो संस्कारित करना चाहिए।
आदिपुराण में तीनों प्रकार के अधिकारियों द्वारा यज्ञोपवीत धारण करने की पृथक्-पृथक विधि बताई गई है।