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उपनयन संस्कार विधि का आध्यात्मिक स्वरूप ...193 इसी तरह अन्य प्रसंगों में भी यज्ञोपवीत के अशुद्ध होने की संभावनाएँ होने पर पुन: संस्कारित करवाकर धारण करना चाहिए। उपवीत(जनेऊ) धारण का सार्वकालिक माहात्म्य
जैन एवं वैदिक दोनों परम्पराएँ यज्ञोपवीत के महत्त्व को स्वीकारती हैं। दिगम्बर मत में यज्ञोपवीत धारण किए बिना उसे श्रावक धर्म पालन करने का, जिनपूजा करने का और दान देने का अधिकारी नहीं माना गया है।45 तदनुसार जो भव्य जीव जनेऊ धारण किए बिना दान, पूजा आदि सत्कर्म करना चाहते हैं या करते हैं, उनको पूजा और दान के फल की पूर्ण प्राप्ति नहीं होती है। यज्ञोपवीत शब्द की निरूक्ति से भी यही बात सिद्ध होती है कि यज्ञोपवीत धारण किया हुआ व्यक्ति ही पूजा और दान आदि कर सकता है।
यज्ञोपवीत शब्द की निरूक्ति इस प्रकार है
“यज्ञे दानदेवपूजाकर्मणि धृतं उपवीतं ब्रह्मसूत्रं यज्ञोपवीत' अथवा 'यज्ञार्थ दानदेवपूजार्थ धृतं उपवीतं ब्रह्मसूत्रं यज्ञोपवीतमिति।' अथवा 'उपवीतं बह्मसूत्रं इत्यमरः।'
___ इस सम्बन्ध में जैन ग्रन्थों के अनेक उद्धरण भी दृष्टव्य हैं, जो यह सूचित करते हैं कि दान एवं पूजा आदि करने के लिए यज्ञोपवीत अवश्य धारण करना चाहिए। यज्ञोपवीत पहने हुए गृहस्थ को ही पूजा आदि करने का अधिकार प्राप्त होता है, जैसे• जो इज्या (जिनपूजा) दत्ति (दान) आदि षट्कर्म का आचरण करना हो,
आठ मूलगुण का पालन करने वाला हो, समस्त संस्कारों को करने वाला हो और यज्ञोपवीत सहित हो उसे ही गृहस्थ कहते हैं वह गृहस्थ ही दान
दे सकता है।46 • पूजा को प्रकट करने वाले चक्रेश्वर ने जिनेश्वर परमात्मा की पूजा के
लिए विधि रूप भूषणों का चिह्न यज्ञोपवीत बतलाया है। • शुद्ध वस्त्र और यज्ञोपवीत धारण करके ही जिनेश्वर परमात्मा की पूजा
करनी चाहिए।47 पूजक को तिलक और माला भी पहननी चाहिए।48 • रत्नत्रय का चिह्न(उरोलिंग) यह यज्ञोपवीत मैं भगवान की पूजा के लिए
धारण करता हूँ।