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________________ उपनयन संस्कार विधि का आध्यात्मिक स्वरूप ...187 यहाँ चौक से सूत का प्रमाण इसलिए कहा गया है कि चारों पुरुषार्थ की शुद्धि रत्नत्रय धारक पुरुष को ही होती है, उसको त्रिगुणित करने पर सत्ताईस तत्त्व वेष्टित(नवपद) के स्वरूप का बोध होता है। पुन: त्रिगुणित किया हुआ तीन लड़ का यज्ञोपवीत रत्नत्रय का बोध करवाता है।35 ___ सुस्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा में तीन प्रकार के यज्ञोपवीत बतलाए गए हैं तथा वह उपवीत सधवा नारी या कन्या के हाथ द्वारा काते हुए सूत का होना चाहिए। वैदिक-परम्परा में यज्ञोपवीत का स्वरूप उपवीत का स्वरूप- वैदिक मतानुसार यज्ञोपवीत नौ तन्तु सहित तीन सूत्र वाला एवं सम्यक् विधि पूर्वक बंटा हुआ होता है तथा ऊपर में हृदय तक और नीचे में नाभि तक लम्बा होता है।36 उपवीत का परिमाण- तदनुसार यज्ञोपवीत 96 अंगुल परिमाण वाला होना चाहिए। ___उपवीत कैसा हो ? गृह्यसूत्रों एवं स्मृतियों में यज्ञोपवीत के पृथक्-पृथक् प्रकार बताए गए हैं। मनु(2/44) एवं विष्णुधर्मसूत्र (27/19) के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य के लिए क्रमश: कपास, सन एवं ऊन का होना चाहिए। बौधायनधर्मसूत्र (1/5/5) एवं गोभिलगृह्यसूत्र (1/2/1) के अनुसार रूई या कुश का होना चाहिए, किन्तु देवल के अनुसार सभी द्विजातियों का यज्ञोपवीत कपास, क्षुमा(अलसी), गाय की पूँछ के बाल, पटसन-वृक्ष की छाल या कुश का होना चाहिए।37 वर्तमान में प्राय: कपास का ही यज्ञोपवीत बनाया जाता है। . उपवीत का संख्या निर्धारण- वैदिक साहित्य के निर्देशानुसार संन्यासी व ब्रह्मचारी केवल एक उपवीत धारण कर सकता है, स्नातक (जो ब्रह्मचर्य के उपरान्त गुरु गेह से अपने माता-पिता के घर आ चुका है) एवं गृहस्थ दो उपवीत धारण कर सकता है तथा जो दीर्घायु चाहता है, वह दो से अधिक पहन सकता है।38 ___ इस तरह वैदिक परम्परा में यज्ञोपवीत का सर्वाधिक महत्त्व रहा है। धर्मशास्त्र में कहा गया है कि पुरुष को सदा यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए।
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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