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180...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन उपनयन संस्कार के प्रयोजन का इतिहास
__ यदि हम वैदिक परम्परा के इतिहास का विवेचन करते हैं, तो प्राचीनकाल में इस संस्कार का प्रयोजन वेदों का विवेचन करना था, कर्मकाण्ड गौण था. केवल वेद की किसी भी शाखा का विवेचन करवाना ही मुख्य था।10 याज्ञवल्क्य के अनुसार उपनयन का एक मात्र लक्ष्य वेदों का विवेचन करना है।11 आपस्तम्ब
और भारद्वाज विद्या की प्राप्ति को उपनयन का उद्देश्य मानते हैं। आगे चलकर शिक्षा का यह प्रयोजन गौण हो गया तथा कर्मकाण्ड और यज्ञोपवीत धारण करना प्रधान हो गया। इस मत के प्रथम प्रतिपादक गौतम हुए। उन्होंने कहाअड़तालीस संस्कारों से सुसंस्कृत व्यक्ति ब्रह्मा और ऋषियों का सान्निध्य प्राप्त करता है।12 मनु के अनुसार इस संस्कार द्वारा मनुष्य का ऐहिक व पारलौकिकजीवन पवित्र होता है।13 अंगिरा का मत है- विधि पूर्वक संस्कारों के अनुष्ठान से ब्राह्मणत्व प्राप्त होता है।14
इस प्रकार उपनयन के मुख्यतया तीन प्रयोजन इतिहास के गर्भ में विद्यमान रहे हैं- 1. वेद का विवेचन करवाना 2. आचार्य के सन्निकट ले जाना
और 3. ब्राह्मणत्व की प्राप्ति करना। वर्तमान स्थिति में इसका उद्देश्य यज्ञोपवीत धारण करके अपने-आपको ब्राह्मण सिद्ध करना है। उपनयन संस्कार के उद्देश्यों एवं तत्सम्बन्धी मतभेद
श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं वैदिक-इन तीनों धाराओं में उपनयन संस्कार के उद्देश्य भिन्न-भिन्न रहे हैं। __श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार यह संस्कार व्यक्ति को वर्ण विशेष में प्रवेश देने के लिए तथा तदनुरूप वेश एवं मुद्रा को धारण करने के लिए किया जाता है। जैसा कि कहा गया है-धर्माचार में और चारित्र पालन में वेश प्रथम कारण होता है अत: संयम एवं लोकलज्जा हेतु श्रावक एवं साधुओं के लिए वेश आवश्यक है।15 वेश की प्रधानता को स्वीकारते हुए धर्मदासगणि ने उपदेशमाला में कहा है16-'वेश धर्म की रक्षा करता है, क्योंकि योग्य वेश पहना हुआ अकार्य करते समय शंका करता है कि मैं दीक्षित हूँ, मुझे अकृत्य करते देखकर लोग निन्दा करेंगे। जिस प्रकार राजा जनपद की रक्षा करता है, उसी प्रकार उन्मार्ग की ओर जाते हुए व्यक्ति की वेश रक्षा करता है, अत: अपनेअपने वर्ण एवं वेश विशेष को धारण करने के लिए यह संस्कार किया जाता है।