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162...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
यहाँ यह तथ्य भी ध्यातव्य है कि नवजात शिशु के केश उसकी गर्भावस्था में ही पनपे होते हैं। आध्यात्मिक एवं भौतिक दृष्टि से वह केश राशि अशुद्ध होने से नितान्त त्याज्य होती है, इस कारण भी चूडाकर्म संस्कार की आवश्यकता सिद्ध हो जाती है।
शरीर विज्ञान के अनुसार यह समय दाँतों के निकलने का है। इसके कारण बालक के शरीर में कई प्रकार की व्याधि का होना स्वाभाविक है। व्याधि से उसका शरीर निर्बल हो जाता हैं, बाल झड़ने लगते हैं, ऐसे समय में इस संस्कार का विधान अस्वस्थकारक कारणों से बचाता है।
इस संस्कार का दूसरा नाम मुण्डन संस्कार भी है। यह संस्कार त्वचा सम्बन्धी रोगों के लिए अत्यन्त लाभकारी होता है। शिखा को छोड़कर सिर के शेष बालों को मूंड देने से शरीर का तापक्रम सामान्य हो जाता है और उस समय होने वाली फुसी, दस्त आदि व्याधियाँ स्वत: न्यून हो जाती हैं। एक बार मूंडने के बाद फिर बाल झड़ते नहीं, वे बद्धमूल हो जाते हैं।
उक्त दृष्टियों से भी चूड़ाकरण संस्कार अत्यन्त उपयोगी एवं परमावश्यक सिद्ध होता है। शिखा या चोटी का अनुभूतिपरक महत्त्व
मानव शरीर की समस्त प्रवृत्तियों का केन्द्र मस्तिष्क है। यह शरीर का नियन्त्रण कक्ष है अत: मस्तिष्क का विकसित, परिष्कृत और व्यवस्थित होना आवश्यक है। यह तभी सम्भव है, जब वह पूर्ण सुरक्षित और ज्ञान स्रोतों से संयुक्त हो। जिस तरह आधुनिक युग में शासन महत्त्वपूर्ण विभागों के लिए अभेद्य सुरक्षा कवच की व्यवस्था करता है, ठीक उसी प्रकार प्रकृति ने भी मानव शरीर के कोमल अंगों को अनेक प्रकार के प्राकृतिक सुरक्षा कवच प्रदान कर उन्हें न केवल सुरक्षित किया है, अपितु सबल भी बनाया है।
शिखा मस्तिष्क के सर्वाधिक संवेदनशील मर्मस्थान की रक्षा करती है। यह ज्ञानशक्ति को जागृत रखती है। इसे (चोटी) ब्रह्मरन्ध्र की रक्षिका माना जाता है। शिखा द्वारा मानव मस्तिष्क अतुल शक्ति के प्रवाह को धारण करता है। शरीरविज्ञान के अनुसार जिस स्थान पर शिखा रखी जाती है, उसे पिनल जोइंट कहा जाता है। इसके नीचे एक विशेष प्रकार की ग्रन्थि होती है, जो 'पिच्यूटरी' कहलाती है। इस ग्रन्थि निसृत रस स्नायुओं द्वारा सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होकर