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________________ अन्नप्राशन संस्कार विधि का प्रायोगिक स्वरूप... 147 उपसंहार यदि हम पूर्व विवेचन के पश्चात् इस संस्कार के सम्बन्ध में समीक्षात्मकदृष्टि से मनन करें, तो विदित होता है कि अन्नप्राशन एक मूल्यवान् संस्कार है। मानव विकास में यह संस्कार महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इस विश्व का प्रत्येक प्राणी अपने तन, मन एवं चिन्तन को पवित्र रखना चाहता है । तदुपरान्त विगत जन्मों के दुष्प्रभाव से एवं इस जन्म में सत्संस्कारों का आश्रय न मिलने के कारण व्यक्ति का तन-मन अपवित्र बन भी जाए, तो भी अन्तर्मन से वह स्वच्छ, सात्त्विक एवं पवित्र रहना चाहता है । यह मनोभावना अन्नप्राशन संस्कार द्वारा पूर्ण की जा सकती है, क्योंकि इस संस्कार के माध्यम से गर्भ में रहे हुए आहार जनित दोषों को दूर किया जाता है। इस संस्कार का एक उद्देश्य यह भी है कि अन्न स्वयं एक पवित्र वस्तु है इसलिए उसका प्रथम आस्वाद करवाते समय उसके माधुर्य, रसत्व, गन्धत्व एवं उष्णत्व गुण से परिचित कराया जाए। सन्दर्भ सूची 1. हिन्दूसंस्कार, पृ. 114 2. राजप्रश्नीय, मधुकरमुनि, सू. 280 3. आचारदिनकर, पृ. 16 4. आदिपुराण, पर्व - 38, पृ. 248 5. हिन्दूसंस्कार, पृ. 117-18 6. आचारदिनकर, पृ. 16 7. आचारदिनकर, पृ. 16 8. आदिपुराण, पर्व - 38, पृ. 248 9. (क) आश्वलायनगृह्यसूत्र, 1/16 (ख) पारस्करगृह्यसूत्र, 1/19/2 (ग) बौधायनगृह्यसूत्र, 2/2 10. मनुस्मृति, 2/34, याज्ञवल्क्यस्मृति, 1/12 11. वीरमित्रोदयसंस्कार, भा. - 1, पृ. 267 12. वही, पृ. 267 13. आचारदिनकर, पृ. 17 14. आचारदिनकर, पृ. 16-17
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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