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136...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
दिगम्बर मतानुसार इसका दसवाँ स्थान है तथा वैदिक ग्रन्थों में इस संस्कार को आठवें क्रम पर रखा गया है। अन्नप्राशन संस्कार का शाब्दिक अर्थ
अन्न+प्र+अशन-इन तीन शब्दों के संयोग से 'अन्नप्राशन' शब्द निर्मित है। इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-विशिष्ट प्रकार का, सुसंस्कारी एवं सात्विक अन्न का भोजन। विशुद्ध भावनाओं के साथ कुल परम्परा या धर्म परम्परा के अनुसार विधि-विधान पूर्वक बच्चे के मुँह में प्रथम बार खिलाया जाना अन्नप्राशन संस्कार कहलाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सम्यक् प्रकार से सुसंस्कारित और सात्विक अन्नाहार को बालक के मुँह में अन्नप्राशन संस्कार है। अन्नप्राशन संस्कार की मौलिक आवश्यकता
यदि हम अन्नप्राशन संस्कार की आवश्यकता, उपादेयता एवं उद्देश्यता पर विचार करते हैं तो कई महत्त्वपूर्ण पहलू सप्रयोजन उपस्थित होते हैं। 'अन्न वैः प्राणा'-उपनिषद ग्रन्थ में अन्न को प्राण कहा गया है। इस मत के सभी समर्थक हैं। हिन्दू ग्रन्थों में अन्न को विष्णु, अन्न को यज्ञ और अन्न को ब्रह्म भी कहा गया है। यह सुज्ञात है कि अन्न से ही जीवन तत्त्व मिलता है, वही रक्त, माँस बनकर जीवन धारण किए रहने की क्षमता उत्पन्न करता है। आधार के बिना जीवन टिकना मुश्किल है। इस तरह अन्न को शरीर ही नहीं, जीवन भी कहा जा सकता है।
वस्तुत: अन्न जीवनप्रद तत्त्व है। वह मनुष्य को जीवन प्रदान करता है। यहाँ तक कि मनुष्य की विचारणा, भावना एवं आकांक्षा भी बहुत कर अन्न पर ही निर्भर रहती है। 'जो जैसा खाता है, वह वैसा ही बन जाता है'-यह उक्ति केवल शरीर के सम्बन्ध में ही लागू नहीं होती, वरन् उसका तात्पर्य मानसिक स्थिति से भी है। पौष्टिक एवं सात्विक आहार करने वाले शरीर की दृष्टि से निरोग, बलवान्, दीर्घजीवी और सुडौल होते हैं और जिनका आहार निम्न कोटिका एवं अनुपयुक्त होता है, वे रोगी, दुर्बल और अल्पायु होते हैं। इसके प्रमाण पग-पग पर हर जगह मिलते हैं। यह भी एक सनिश्चित तथ्य है कि 'जैसा खाए अन्न, वैसा होए मन' जिस प्रकार का आहार का स्तर होगा, उसके अनुरूप ही मनुष्य की भावनाओं का निर्माण होता है। इस वर्णन से इतना तो