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अध्याय - 10
अन्नप्राशन संस्कार विधि का प्रायोगिक स्वरूप ___अन्न को जीवन की प्राथमिक आवश्यकता माना गया है। प्रतिक्षण किसी न किसी रूप में जीव द्वारा आहार ग्रहण किया जाता है। परन्तु इनमें अन्नाहार का विशेष महत्त्व है। अन्न जीवन का नियामक तत्त्व है। इसी के आधार पर व्यक्ति का आचार एवं व्यक्तित्व निर्माण होता है। अन्नप्राशन संस्कार बालक को प्रथम बार अन्न खिलाए जाने से सम्बन्धित है। इस संस्कार के माध्यम से विधिविधान पूर्वक बालक को सुपाच्य अन्न खिलाया जाता है। यह सर्वविदित है कि बालक का प्रारम्भिक जीवन माता के स्तन-पान पर ही अवलम्बित रहता है। अन्नप्राशन संस्कार न होने तक बालक दुग्धाहार द्वारा ही शारीरिक एवं मानसिक पुष्टता को प्राप्त करता है। __ वैदिक परम्परा के अनुसार प्राचीनकाल में शिशु को पहली बार भोजन करवाना, एक प्रथा मात्र थी किन्तु जैसे-जैसे इस प्रक्रिया के सद्परिणाम प्रत्यक्ष होने लगे, यह कार्यकारी सिद्ध होने लगा। तब से परवर्ती साहित्य लेखकों ने इस प्रथा को धार्मिक संस्कार के रूप में स्थापित किया।' आगम परम्परा के अनुसार यह संस्कार पूर्वकालीन सिद्ध होता है। इस संस्कार का उद्भव आगमयुग में हो चुका था। राजप्रश्नीय नामक उपांगसूत्र में इस संस्कार के सन्दर्भ में स्पष्ट उल्लेख हैं, इससे हम कह सकते हैं कि जैन परम्परा का यह संस्कार अधिक प्राचीन है।
यह संस्कार शारीरिक एवं धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व रखता है। श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं वैदिक-इन तीनों परम्पराओं में इस संस्कार को समान रूप से माना गया है। यह संस्कार सम्पन्न करने का जो मूलभूत उद्देश्य है, वह सभी परम्पराओं का एक-सा है। प्रयोजन की दृष्टि से कोई विशेष अन्तर नहीं है, किन्तु इस संस्कार की विधि प्रक्रिया एवं संस्कार की क्रमिकता को लेकर अवश्य असमानताएँ हैं। श्वेताम्बर परम्परा में अन्नप्राशन संस्कार का नौवाँ स्थान है।