________________
106... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
चाहिए। बात बिल्कुल सत्य है, परन्तु इस संस्कार में कुल परम्परा को विशिष्ट स्थान दिया गया है। यह बात जैन आगम ग्रन्थों में भी स्पष्ट रूप से पढ़ने को मिलती है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही परम्परा को कुल परम्परा कहते हैं। कुल परम्परा का पालन करना भी अनिवार्य होता है, अत: इस संस्कार में कुल परम्परा का निर्वाह करने के लिए माताओं का पूजन किया जाता है। इन माताओं को अपार शक्ति का पुंज माना गया है तथा इन माताओं की अर्चना करने से अनिष्ट का निवारण होता है और इष्ट कार्य की प्राप्ति होती है ऐसा भी स्वीकारा गया है। इसी हेतु इनका पूजन - विधान किया जाता है ।
उक्त वर्णन के आधार पर यह सिद्ध होता है कि अमंगलकारी शक्तियों का निवारण एवं मंगलकारी शक्तियों की प्राप्ति के लिए यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार का दूसरा प्रयोजन यह भी माना जा सकता है कि नवजात का अविकसित मस्तिष्क बहुत कोमल होता है । वह कोमल अंग किसी प्रकार की अशुभ शक्तियों से उपहत न हो जाए, इससे बचने के लिए यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार की आवश्यकता कुल - परम्परा का निर्वाह करने के लिए भी स्वीकारी गई है। ऐसे कई कारण षष्ठी संस्कार की आवश्यकता और उपादेयता को सुसिद्ध करते हैं।
जन्म के छठवें दिन ही षष्ठी संस्कार क्यों?
षष्ठी देवी विशेष का नाम है। जैन धर्म में षष्ठी देवी का आशय ब्राह्मी आदि आठ माताओं एवं अंबिका नाम की देवी से है। जबकि हिन्दू धर्म में षष्ठी का अर्थ षष्ठी नाम की देवी से ही है।
पुराण साहित्य में षष्ठी देवी को शिशुओं की अधिष्ठात्री देवी के रूप में निरूपित किया है। इस संस्कार का अभिप्राय, बालकों को दीर्घायु प्रदान करते हुए उनका संरक्षण एवं भरण-पोषण करना जो षष्ठी देवी का स्वाभाविक गुण है। यह मान्यता है कि शिशु जन्म की छठवीं रात्रि में बालक के लिए विशेष अरिष्ट-योग रहता है, अनेक भूत बाधाएँ उपस्थित होने की संभावनाएँ रहती हैं, अतएव बालक की रक्षा के लिए ही जन्म के छठवें दिन षष्ठी देवी की आराधना की जाती है। हिन्दू अवधारणा में यह बात भी स्वीकारी गई है कि भगवती षष्ठी देवी अपने योग के प्रभाव से शिशुओं के पास सदैव वृद्ध माता के रूप में विद्यमान रहती हैं। बालकों को स्वप्न में खिलाती, हंसाती, दुलारती एवं अभूतपूर्व वात्सल्य प्रदान करती रहती हैं, इसी कारण सभी शिशु अधिकांश