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षष्ठी संस्कार विधि का व्यावहारिक स्वरूप... 105
मातृगण के नाम से सात माताओं के नाम निर्दिष्ट हैं। मत्स्यपुराण (179/9-32) में शताधिक देवियों के नामों का उल्लेख हैं जैसे - माहेश्वरी, ब्राह्मी, कौमारी, चामुण्डा आदि। इस प्रकार वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में मातृका पूजन एवं मातृका के नामों की सुस्पष्ट चर्चा प्राप्त होती है ।
हिन्दू परम्परा में षष्ठी का अभिप्राय षष्ठी देवी से है। वह देवी कात्यायनी के नाम से प्रसिद्ध है और दुर्गा का ही एक रूप मानी जाती है। साथ ही सोलह विद्या देवियों में से एक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन एवं हिन्दू परम्परा में षष्ठी देवी का अर्थ भिन्न-भिन्न हैं।
षष्ठी संस्कार की आवश्यकता क्यों और कब से?
इस संस्कार को प्रारम्भ करने की आवश्यकता क्यों और किस स्थिति में हुई? इस संस्कार को सम्पादित करने का मुख्य प्रयोजन क्या रहा होगा ? इत्यादि बिन्दुओं पर विचार करते हैं, तो चिन्तन का निष्कर्ष यह कहता है कि नवजात शिशु पर किसी प्रकार का अमंगलकारी, अनिष्टकारी एवं अकल्याणकारी उपद्रव न हो, किसी भी प्रकार की आसुरी शक्तियों का आक्रमण न हो, कोई दुष्ट देव कुपित होकर शिशु का अपहरण न कर ले, एतदर्थ माताओं का पूजन किया जाता है। प्राचीनकाल में उपद्रव आदि की संभावनाएँ विशेष रहती होंगी, अशुभ शक्तियों का प्रभाव मुख्य तौर पर देखा जाता होगा अथवा किसी प्रकार की अमंगलकारी घटनाएँ घटित हुई होंगी, अतः इन परिस्थितियों में इस संस्कार का प्रादुर्भाव हुआ ऐसा जान पड़ता है। आज भी ग्रामीण इलाकों में आसुरी - शक्तियों द्वारा होने वाले उपद्रवों की घटनाएँ सुनने में आती हैं। यह उपद्रव किसी दुष्ट देवता द्वारा ईर्ष्या के वशीभूत होकर या स्वयं के पूर्वकृत कर्मों के परिणामस्वरूप या मनोरंजन करने की दृष्टि से हुआ करता है।
जैन दर्शन की एक अवधारणा यह है कि यदि किसी के साथ बुरा किया है, तो उसका फल भोगना ही पड़ता है, किन्तु जैन दृष्टि की दूसरी विचारणा यह भी है - यदि कोई विशुद्ध रीति से धर्म साधना करता है, तो कृत पाप कर्म निर्जरित हो जाते हैं। यहाँ माताओं के पूजन करने का हार्द यही है ।
किसी मानव मन में यह प्रश्न तरंगित हो सकता है कि यदि पाप कर्मों का क्षरण करना है, तो उसका मातृकाओं की आराधना से क्या सम्बन्ध है? ये मुक्तिगामिनी तो है नहीं, अतः तीर्थंकर भगवन्तों की आराधना - अर्चना करनी