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98...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन क्षीराशन संस्कार का शाब्दिक पर्याय
क्षीर=दूध, अशन भोजन अर्थात नवजात बालक को विधि- विधान एवं मंत्रोच्चार पूर्वक दुग्धपान कराना क्षीराशन संस्कार है। क्षीराशन संस्कार की नैतिक आवश्यकता
__ यदि हम शरीर शास्त्र एवं चिकित्सा शास्त्र की दृष्टि से विचार करें तो इस संस्कार की नितांत अनिवार्यता सिद्ध होती है।
दूध एक तरल, मधुर एवं पौष्टिक आहार है। इसका सेवन सभी के लिए लाभकारी माना गया है। इसे चबाने की एवं पचाने की जरूरत नहीं रहती है। यह बिना दाँतों के ग्रहण किया जा सकने वाला आहार है तथा इस आहार को हजम करने के लिए पाचनतंत्र की पूर्ण सक्रियतां भी अपेक्षित नहीं होती है। जैन दर्शन की मान्यतानुसार दूसरा पक्ष यह है कि संसारी प्राणी बिना आहार के टिक नहीं सकता है। माँ के गर्भ में आते ही उसकी आहार प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है, तब जन्म लेने के बाद तो आहार की अनिवार्यता स्वतःसिद्ध है। तीसरा तथ्य यह है कि नवजात शिशु के दाँत नहीं होते और उसका पाचनतंत्र भी पूर्ण विकसित नहीं होता है। ये शक्तियाँ क्रमश: बढ़ती हैं, तब उस स्थिति में दूध ही एक ऐसा पदार्थ बचता है, जो उस शिशु के लिए पौष्टिक, शक्तिशाली एवं आरोग्यवर्धक होता हैं अत: नवजात शिशु की पुष्टता एवं आरोग्यता की वृद्धि के लिए यह संस्कार किया जाता है।
यहाँ प्रश्न हो सकता है कि नवजात शिशु को माता के स्तनपान द्वारा ही दुग्धाहार क्यों करवाया जाता है? इस प्रश्न के समाधान में बहुत बड़ा मनोविज्ञान छिपा हुआ है। सर्वप्रथम यह प्रणाली स्वाभाविक या प्राणीय प्रकृति के अनुरूप है। दूसरा तथ्य है कि व्यक्ति के हार्मोन्स एवं उसकी भावनाएँ आस-पास के वातावरण में विद्युत् वेग का कार्य करती है। व्यक्ति के आचार-विचार एवं क्रियाकलाप द्वारा उसका आभामण्डल निर्मित होता है। सुयोग्य एवं उत्तम विचारों का प्रवाह होने पर उसी प्रकार का प्रभावी आभामण्डल तैयार होता है और उस आभामण्डल के सन्निकट आने वाले प्रत्येक व्यक्ति की जीवन शैली न्यूनाधिक मात्रा में ही सही, उससे अवश्य प्रभावित होती है। यही बात स्तनपान के सम्बन्ध में लागू होती है। माता के स्तन द्वारा न केवल बालक का शारीरिक-विकास होता है, अपितु माता-पिता के अंगीय गुणों जैसे- शूरवीरता, सात्त्विकता, धीरता,