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सूर्य-चन्द्र दर्शन संस्कार विधि ...89 इस मन्त्र का तात्पर्य है - यज्ञोपवीत, विवाह, मुनिपद, सुरेन्द्रपद, युवराजपद, महाराजपद एवं अरिहंतपद की प्राप्ति के लिए निकलने वाला बन अर्थात इस दुनिया में कदम रखने के साथ ही क्रमश: युवराज आदि पदों को प्राप्त करता हुआ अरिहंतपद की प्राप्ति करना, बाहरी जगत का परिचय करने के साथ-साथ आभ्यन्तर रूप से आत्मजगत का परिचय प्राप्त करना। प्रस्तुत मन्त्रोल्लेख से सूचित होता है कि इस परम्परा में यह संस्कार भौतिक जगत के साथ-साथ आध्यात्मिक जगत में प्रवेश पाने हेतु किया जाता है।
इसी के साथ जब बालक को जिनालय के दर्शन करवाते हैं, उस समय दर्शन कराते हुए 'ऊँ नमोऽर्हते भगवते जिन भास्कराय जिनेन्द्र प्रतिमा दर्शने अस्य बालकस्य दीर्घायुष्यं आत्मदर्शनं च भूयात्'-यह मन्त्र पढ़ते हैं।18 इस मन्त्र में भी आत्म दर्शन की बात कही गई है। दिगम्बर परम्परा में बहिर्यान-संस्कार की यही विधि है।
धृति संस्कार- दिगम्बर मत में प्रचलित धुति नामक चौथा संस्कार गर्भ की वृद्धि के लिए गर्भाधान से सातवें महीने में, सुयोग्य गृहस्थों द्वारा विधि पूर्वक सम्पन्न किया जाता है। निष्क्रमण संस्कार विधि
वैदिक- बालक को सृष्टि के उन्मुक्त वातावरण में प्रवेश करवाने के लिए जो विधि या क्रियाकाण्ड किए जाते हैं, उन्हें वैदिक-परम्परा में निष्क्रमण संस्कार नाम दिया गया है। इस संस्कार विधि का प्राचीन स्वरूप इस प्रकार उपलब्ध होता है - मुहूर्तसंग्रह के अनुसार यह संस्कार सम्पन्न करने के निश्चित दिन में माता गृह आंगन के ऐसे वर्गाकार भाग को जहाँ से सूर्य दिखाई दे सके गोबर और मिट्टी से लीपती थी। फिर उस पर स्वस्तिक का चिह्न बनाकर धान्यकणों को बिखेरती थी।19 परवर्तीकालीन ग्रन्थों के अनुसार बालक को भलीभाँति अलंकृत कर कुल देवता के समक्ष लाया जाता है। वाद्य-संगीत के साथ देवता की पूजा की जाती है। आठ लोकपालों, सूर्य, चन्द्र, वासुदेव और आकाश की स्तुति की जाती है। ब्राह्मणों को भोजन दिया जाता है और शुभ सूचक श्लोकों का उच्चारण किया जाता है। शंख ध्वनि एवं वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के साथ शिशु को बाहर लाया जाता है। बाहर लाते समय पिता निम्न श्लोक का उच्चारण करता है-'यह शिशु अप्रमत्त हो या प्रमत्त, दिन हो या रात्रि, इन्द्र के नेतृत्व में सब देव इसकी रक्षा करें।'20