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जातकर्म - संस्कार - विधि... 77
वह सवस्त्र स्नान कर वयोवृद्धों को आमन्त्रित करता तथा नान्दीश्राद्ध और जातकर्म संस्कार सम्पन्न करता था। 14 श्राद्ध एक अशुभ कृत्य है, किन्तु हारीत लिखते हैं कि 'शिशु के जन्म के अवसर पर पितरों की प्रसन्नता से पुण्य बढ़ता है, अतः ब्राह्मणों को आमन्त्रित कर तिल और स्वर्ण पूर्ण पात्रों से उनका श्राद्ध करना चाहिए। 15 इस प्रकार पुत्र जन्म के अवसर पर प्रारम्भिक रूप में संस्कार की उक्त विधि की जाती थी।
परवर्तीकाल में नाल छेदन से पूर्व बालक को स्वर्ण शलाक़ा से अथवा अनामिका अंगुली से असमान मात्रा में मधु और घृत चटाया जाता है। अन्य मतानुसार दही, भात, जौ तथा बैल के श्वेत - कृष्ण और लाल बाल भी दिए जाते हैं। साथ ही अमुक मन्त्र का उच्चारण किया जाता है - 'मैं तुझमें भू: निहित करता हूँ।' यह जातकर्म का प्रथम कृत्य है । यहाँ जो पदार्थ शिशु को खिलाए जाते हैं, वे उसके मानसिक विकास में सहयोग करते हैं तथा पाचन शक्ति, स्मृति, बुद्धि, ध्वनि, वीर्य और आयुवर्द्धक हैं। 16 इसमें स्वर्ण त्रिदोषनाशक है। घृत आयुवर्द्धक और वातपित्तनाशक है तथा मधु कफनाशक है। इन तीनों का सम्मिश्रण आयु, लावण्य और मेधा शक्ति को बढ़ाने वाला और पवित्रता कारक होता है। गोभिलगृह्यसूत्र के अनुसार शिशु के कान में 'तू वेद है' - इस वाक्य का उच्चारण करते हुए शिशु का एक गुह्य नाम रखा जाता है, जिसे केवल मातापिता ही जानते हैं। इस नाम को प्रकट नहीं किया जाता है क्योंकि यह आशंका रहती है कि 17 उस नाम पर कोई शत्रु अभिचार ( जादू-टोना) का प्रयोग कर नवजात पुत्र को क्षति न पहुँचा दे।
जातकर्म का दूसरा कृत्य आयुष्य से सम्बन्धित है। यह कृत्य करते हुए शिशु का पिता उसकी नाभि अथवा दाहिने कान के निकट गुनगुनाता हुआ कहता है-‘अग्नि दीर्घजीवी है, मैं इस दीर्घ आयु से तुझे दीर्घायु करता हूँ', आदि । 18 इस प्रकार के शब्दोच्चारण द्वारा यह विश्वास किया जाता है कि शिशु दीर्घायुष्य को प्राप्त करेगा । दीर्घायुष्य के लिए अन्य कृत्य भी किए जाते हैं । जातकर्म के तीसरे कृत्य के रूप में पिता शिशु के दृढ़, वीरता पूर्ण और शुद्ध जीवन के लिए प्रार्थना करता है। कुल - माताओं की स्तुति भी की जाती है। 19 संस्कार की समाप्ति पर ब्राह्मणों को दक्षिणा रूप में दान दिया जाता है। व्यास के अनुसार पुत्र जन्म की रात्रि में दिए हुए दान से अक्षय पुण्य होता है | 20