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________________ अध्याय 3 पुंसवन संस्कार विधि का सामान्य स्वरूप पुत्र संतान उत्पन्न करने एवं गर्भस्थ शिशु के समुचित विकास के लिए गर्भिणी स्त्री का पुंसवन संस्कार किया जाता है। मनोविज्ञान का यह सिद्धान्त है कि बालक को सुसंस्कारी बनाने के लिए सबसे पहले उसके जन्मदाता मातापिता को सुसंस्कृत होना परमावश्यक है। माता-पिता के आचार-विचारों का गर्भस्थ बालक पर चिरस्थाई प्रभाव पड़ता है। गर्भस्थ जीव की स्वाभाविक संरचना का विकास माता - पिता पर आधारित होता है, इसलिए तो कहा गया है कि बालक की प्रथम पाठशाला माता होती है । जैन आगम - साहित्य में इस प्रकार के अनेक उल्लेख मिलते हैं कि गर्भवती स्त्री को किस प्रकार रहना चाहिए, किस प्रकार चलना चाहिए, कौन - कौनसी खाद्य वस्तुएँ नहीं खानी चाहिए ? यह निर्देश सन्तान को सुसंस्कारी बनाने हेतु ही दिए गए हैं अतः पुंसवन संस्कार इसी उद्देश्य से किया जाता है। भारतीय वाङ्गमय में पुंसवन संस्कार का अर्थ पुंसवन शब्द का अर्थ है - पु = पुमान् (पुरुष) का जन्म होना अर्थात जिस अनुष्ठान या कर्म द्वारा पुरुष का जन्म हो, वह पुंसवन संस्कार है । इस शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है- 'पुमान् प्रसूयते येन कर्मणा तत् पुंसवनमीरितम्' अर्थात जिस संस्कार कर्म द्वारा पुरुष उत्पन्न किया जाता है, वह पुंसवन संस्कार है। पुंसवन शब्द के इस अर्थ से ज्ञात होता है कि यह संस्कार गर्भ से पुत्र की प्राप्ति हेतु किया जाता है। पुरुष प्रधान भारतीय समाज में 'पुत्र' संतान का महत्त्व अधिक रहा है, इसलिए इस संस्कार का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। पुत्र का महत्त्व बतलाते हुए कहा गया है- ' पुन्नामो नरकात् त्रायते इति पुत्रः' अर्थात 'पुम्' नामक नरक से जो त्राण (रक्षा) करता है, उसे पुत्र कहा जाता है। इस वचन के आधार पर नरक से बचने के लिए मनुष्य पुत्र - प्राप्ति की कामना करते हैं। मनुष्य की इस अभिलाषा पूर्ति के लिए ही शास्त्रों में पुंसवन संस्कार का विधान किया
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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