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________________ गर्भाधान संस्कार विधि का मौलिक स्वरूप ...59 सिद्ध होता है कि गर्भ में स्थाप्यमान शिशु स्त्री एवं पुरुष के मानस-पटल पर अंकित स्वरूप के अनुरूप ही रूप को धारण करता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि जीवन के जो अणु वीर्य में निहित होते हैं, उनमें मानसिक अणु भी विद्यमान रहते हैं। यदि ऐसा नही होता, तो हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद कभी धार्मिक-प्रवृत्ति का नहीं होता। सामान्यत: माता या पिता का रूप एवं स्वभाव सन्तान में रहा करता है। यह तभी संभव है, जब गर्भाधान के समय किसी सदाचारवान व्यक्ति की छबि उसके मानस-पटल में निहित हो। शरीर द्वारा किए गए प्रत्येक कार्य में वैज्ञानिक या दार्शनिक-दृष्टि से मन ही कारण हुआ करता है अत: गर्भाधान संस्कार में गर्भवती का मन सात्विक, नैतिक एवं पवित्रतम विचारों से युक्त रहना चाहिए। यही गर्भाधान संस्कार का साफल्य है। सन्दर्भ-सूची 1. सनातनषोड़शसंस्कारविधि, पृ. 60 2. शरीर स्थान, 8/20 संस्कार अंक, पृ. 174 3. वही, 2/6 4. (क) आदिपुराण, जिनसेनाचार्य, अनु. डॉ. पन्नालाल जैन, भा. द्वि; पर्व 38, पृ. 245 (ख) धर्मशास्त्र का इतिहास, पांडुरंग वामन काणे 5. आचारदिनकर, पृ. 5 6. वही, पृ. 5 7. वही, पृ. 6 8. आदिपुराण, भा.द्वि, पर्व 40, पृ. 301 9. हिन्दू संस्कार, डॉ राजबली पाण्डेय, पृ. 67 10. हिन्दू संस्कार, पृ. 68 11. आचारदिनकर, पृ. 6 12. आचारदिनकर, पृ. 5 13. जैनसंस्कारविधि, पं. नाथूलाल जैन, पृ. 6 14. (क) मनुस्मृति, पं. श्रीराम शर्मा, पृ. 3/48 (ख) याज्ञवल्क्यस्मृति, पृ. 1/79
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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