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58...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
जाने का सूचन किया गया है तथा इस संस्कार के माध्यम से गर्भवती के विचार परम पवित्र रहें, इस पर विशेष बल दिया गया है। उपसंहार
संस्कार तन-मन एवं आत्मा को पवित्र एवं सुसंस्कृत करने की विशिष्ट प्रक्रिया है। संस्कार-कर्म के माध्यम से जीवन और चारित्र-दोनों विशुद्धतर बनते हैं। गर्भाधान संस्कार की उपादेयता क्या हो सकती है? इस बिन्द पर मनन किया जाए, तो ज्ञात होता है कि यह संस्कार वंश परम्परा को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इस विधान द्वारा सुसंस्कारी सन्तान की प्राप्ति होती है। यह स्पष्ट है कि गर्भस्थ-शिशु बाह्य वातावरण से प्रभावित होता है, इस बात को आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करने लगा है। परिवारिक एवं सामाजिकउन्नति के लिए सन्तान को चारित्रवान् और निष्ठावान् बनाना अति आवश्यक है। ये गुण जीवन-उत्थान के लिए भी मूल्यवान हैं।
इस संस्कार द्वारा यह जानने समझने को भी मिलता है कि परिवार में नवीन आगंतुक का आगमन किस तरह होना चाहिए? उसका स्वास्थ्य, स्वभाव एवं बौद्धिक-क्षमता किस प्रकार स्वस्थ एवं सुदृढ़ हो सकती है? ____डॉ. बोधकुमार झा का कहना है-सृष्टि के मूल में ऋत एवं सत्य, सोम एवं अग्नि नाम के तत्वों का सहयोग रहता है। वे ही द्विविध तत्व मानव-जन्म के मूल में भी क्रियाशील रहते हैं। इसका नाम वीर्य और रज है। वीर्य और रज जितने शुद्ध होती हैं, सन्तति भी उतनी ही शुद्ध होती है। संस्कारी माता-पिता के विशुद्ध वीर्य एवं रज से संस्कृत सन्तान का जन्म होता है, अत: संस्कारों का प्रारम्भ गर्भाधान से माना गया है।27 गर्भाधान संस्कार द्वारा वीर्य एवं रज को संस्कारित बनाया जाता है।
शास्त्रानुसार गर्भाधान संस्कार को सफल बनाने हेतु गर्भाधान काल में माता-पिता के द्वारा किसी हीन पुरुष को नहीं देखा जाना चाहिए। शास्त्रकारों ने रज को क्षेत्र और शुक्र को बीज माना है। सन्तान उत्पत्ति में दोनों का ही महत्त्व अपरिहार्य है। तथ्य यह है कि बीज कितना ही सुन्दर हो, यदि क्षेत्र ऊसर या अनुर्वर है, तो उसमें पड़ा हुआ बीज फलप्रद नहीं होता है, इसी तरह क्षेत्र अच्छा हो, पर बीज सुपरिपक्व न हो, तो भी सुन्दर फल नहीं मिल सकता है। इससे