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________________ ज्ञान यात्रा के अविस्मरणीय सहयोगी श्री विजयेन्द्रजी सकलेचा विश्व रूपी देवी के भाल पर हमारा भारतवर्ष मुकुट के समान शोभायमान है। इस मुकुट पर एक दिव्य रत्न के रूप में सुशोभित है कलाकृति का उद्गम स्थल- पश्चिम बंगाल। संगीत, कला, नृत्य, चित्रकारी आदि विविध कलाएँ इस कला भूमि का हृदय बनकर स्पन्दित होती है। इसी कला भूमि के एक दिव्यरत्न हैं सरलमना, सेवाभावी श्रावकवर्य श्री विजयेन्द्रजी सकलेचा। ___ मूलत: आगरा निवासी श्री विजयेन्द्रजी का पालन-पोषण कोलकाता के धर्मानुकूल वातावरण में हुआ। धर्मनिष्ठा मातुश्री पदमकुमारीजी गृहस्थ आश्रम में रहते हुए भी संन्यास आश्रम की भाँति अपना जीवन निर्वाह करती थी। ऐसे धर्म वृक्ष की छत्र छाया में राजेन्द्रजी, विजयेन्द्रजी आदि 7 भाई-बहनों का पल्लवन भी धर्म सुमन के रूप में हुआ। पिताश्री फतेहसिंहजी समाज के आगेवान समाज सेवकों में थे। उन्होंने अपने पुत्रों को व्यापार एवं व्यवहार जगत ही नहीं अपितु धर्म जगत में निपुणता प्राप्त करने के गुर भी सिखाए। आज सकलेचा परिवार अध्यात्म के जिस धरातल पर खड़ा है उस नींव का निर्माण आप ही के श्रेष्ठ संस्कारों के द्वारा हुआ है। ___विजयेन्द्रजी की Graduation तक की शिक्षा कोलकाता के College में हुई। अध्ययन पूर्ण कर यौवन के जोश के साथ होश रखते हुए आपने व्यापारिक गतिविधियाँ प्रारंभ की। प्रथम सोपान में प्रारंभ हुआ ट्रेडिंग मिल का कार्य आज के Manufacturing के चरम शिखर पर पहुंच चुका है। व्यवसाय के क्षेत्र में आप जिस उत्तुंगता पर हैं। अध्यात्म के क्षेत्र में भी आप उसी चरमोत्कर्ष पर हैं। परमात्म-भक्ति, साधु-साध्वी वैयावच्च, साधर्मिक उत्थान आदि में आप सदा ही तत्पर रहते हैं। श्रृत साहित्य वाचन एवं संग्रह की रुचि तो आपको अपनी मातु श्री द्वारा विरासत से ही प्राप्त है। चाहे धार्मिक कार्य हो या सामाजिक, आपका योगदान हर क्षेत्र में सर्वोपरि रहता है। नाम और यश कीर्ति की चाह से परे आपका जीवन एक श्वेत कमल की भाँति दुर्गापुर एवं
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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