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शोध प्रबन्ध सार ...25 विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य पर शोध की उपयोगिताकिसी भी विषय को पूर्ण रूप से समझने के लिए तद्विषयक सम्यक जानकारी होना आवश्यक है। विषय का इतिहास, उसका वर्तमान स्वरूप, काल क्रम में आए बदलाव एवं उनके कारण आदि ज्ञात होने पर हम उसके सही स्वरूप को समझ सकते हैं। - क्रिया-अनुष्ठानों में आगमकाल से अब तक अनेक परिवर्तन आए। इन परिवर्तनों का मूल साक्षी एवं सूत्रधार है जैन साहित्यिक रचनाएँ। इन रचनाओं का काल क्रम के अनुसार अध्ययन किया जाए तो किसी विषय का सर्वांगीण ज्ञान किया जा सकता है। परंतु यह अध्ययन तभी संभव है जब उस विषयक सम्पूर्ण जानकारी हो। जैन विधि-विधानों एवं ग्रन्थों की एक लम्बी सूची है। कौनसा विधान कहाँ प्राप्त होगा? उसका मूल स्वरूप क्या है? आदि की जानकारी प्राप्त करना ही शोध का प्रथम कठिन चरण हो जाता है। यही दिक्कत सर्वप्रथम इस शोध कार्य को प्रारंभ करते समय मेरे समक्ष भी उपस्थित हुई। आखिर किस विधि का प्रारंभिक स्वरूप किस ग्रंथ में है? उसका विकसित स्वरूप कहाँ पर प्राप्त होगा? आदि अनेक जटिल प्रश्न थे अत: सर्वप्रथम इन ग्रन्थों का ऐतिहासिक विकास क्रम एवं विभागीकरण आवश्यक था। प्रथम खण्ड का लेखन इसी कारण किया गया है।
तदनुसार इस खण्ड में विधि-विधान सम्बन्धी मुख्य विषयों को विभाजित करते हुए तत्सम्बन्धी ग्रन्थों का क्रमिक उल्लेख एवं सारगर्भित परिचय दिया गया है।
प्रस्तुत कृति की विशेषता-• विद्वदवर्ग की अपेक्षा से इस कृति में विधि-विधान सम्बन्धी सारभूत ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है। - • शोधार्थियों की सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए विधि-विधान परक साहित्य को विषयवार वर्गीकृत किया गया है। पाठक वर्ग की सुलभता हेतु वैधानिक ग्रन्थ अकारादि सूची क्रम से प्रस्तुत किए गए हैं।
• ग्रन्थों की प्राचीनता एवं मौलिकता दर्शाने हेतु प्रत्येक कृति का रचना काल एवं रचयिता का भी परिचय दिया गया है। जहाँ रचना काल का निश्चित्त उल्लेख नहीं मिल पाया है वहाँ भाषा शैली और विषय वस्तु के आधार पर अनुमानित काल का निर्धारण किया है।