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शोध प्रबन्ध सार ...19 विकास क्रम का अध्ययन शोधपरक दृष्टि से करना आवश्यक है। इस विषय में
जैन साहित्य का अब तक आलोड्न नहीं हुआ है। काल क्रम को ध्यान में रखकर इनका अध्ययन एवं किन परिप्रेक्ष्यों में कौन से परिवर्तन कब घटित हुए यह एक विचारणीय विषय है।
• जैन परम्परा का प्रभाव अन्य परम्परा के विधि-विधानों पर तथा अन्य परम्पराओं का प्रभाव जैन विधि-विधानों पर कब, कैसे और किस रूप में हुआ यह भी शोध के लिए प्रमुख बिन्दु है।
• सभी प्रकार के विधि-विधान किसी न किसी रूप में अनुष्ठित किये ही जाते हैं किन्तु उनके उद्देश्य और प्रयोजन क्या है? उनकी अनिवार्यता कितनी है? उनमें आये परिवर्तनों की आवश्यकता है या नहीं? आदि कई मूलभूत तथ्यों पर प्रामाणिक एवं वर्तमान उपयोगी सामग्री का गुम्फन आवश्यक है। अधिकांशत: जिस व्यक्ति को जिस विधि से प्रयोजन होता है वह तत्सम्बन्धी रुढ़िगत पुस्तकों का ही आश्रय लेता है एवं उन्हीं का प्रकाशन आदि करवा दिया जाता है। तद्विषयक संशोधन अथवा उनके पीछे अन्तरभूत कारणों को समझने का प्रयास नहीवत ही किया जाता है अत: उनका अध्ययन भी आवश्यक है।
• प्रायः विधि-विधान विषयक ग्रन्थ अपनी-अपनी परम्पराओं को लेकर ही प्रकाशित हुए हैं उन पर तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया गया है। जैन धर्म की ही विविध परम्पराओं जैसे- खरतरगच्छ, तपागच्छ, पायछंदगच्छ, स्थानकवासी, तेरापंथी आदि में प्रचलित विधि-विधान एवं इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा की बीसपंथी, तारणपंथी, तेरापंथी आदि शाखाओं में प्रचलित विधानों का स्वरूप क्या है? विविध परम्पराओं में कहाँ, क्यों भिन्नता है? एवं किस विषय में वे एक तुल्य हैं आदि पर भी शोधपरक विवेचन आवश्यक है। __ • जैन विधि-विधानों का बदलता हुआ स्वरूप कितना आगमोक्त एवं प्रामाणिक है? वर्तमान प्रचलित विधि-विधानों के मुख्य आधार ग्रन्थ कौन से हैं? वर्तमान में विधि-विधानों की बढ़ती संख्या एवं उनमें बढ़ती भौतिकता उचित लाभ में कितनी हेतुभूत बन रही है? अनुष्ठित विधि-विधान सही रूप में समाज को जोड़ने का कार्य कर रहे हैं? इनमें रहा हुआ आध्यात्मिक पुट एवं आत्मकल्याण के भाव प्रचलित विधि-विधानों में किस रूप में समाहित है? इन विधि-विधानों का हमारे वैयक्तिक, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन पर क्या