SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 6...शोध प्रबन्ध सार 14. विधि-विधानों एवं कर्मकाण्डों ध्यान और तप की प्रधानता की प्रधानता 15. पुरोहित वर्ग का विकास श्रमण संस्था का विकास 16. उपासना मूलक समाधि मूलक ___ उपरोक्त सारिणी से यह स्पष्ट हो जाता है कि वैदिक धर्म मूलत: प्रवृत्ति प्रधान है और श्रमण धर्म निवृत्ति प्रधान। यदि दोनों परम्पराओं की अर्वाचीन स्थिति पर दृष्टिपात करें तो यह ज्ञात होता है कि हिन्दू धर्म में भले ही यज्ञ, हवन और कर्मकाण्ड की प्रधानता रही फिर भी संन्यास, वैराग्य और मोक्ष का अभाव है। वहीं कालान्तर में श्रमण धारा ने भी चाहे-अनचाहे वैदिक परम्परा से बहुत कुछ ग्रहण किया है। इसी कारण निवृत्ति मूलक श्रमण परम्परा में आज कर्मकाण्ड रूप पूजा पद्धति एवं विधि-विधानों का विकसित रूप दृष्टिगम्य होता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि भारतीय श्रमण परम्परा ने वैदिक परम्परा को आध्यात्मिक दृष्टि के साथ तप, त्याग, संन्यास और मोक्ष की अवधारणाएँ प्रदान की। वहीं तीसरी-चौथी शती के बाद से जैन एवं बौद्ध परम्परा में पूजा-विधान और तान्त्रिक साधनाएँ प्रविष्ट हो गई। अनेक हिन्दू देवदेवियों के प्रकारान्तर श्रमण धर्म में भी स्वीकार किए गए। अनेक विधि-विधान भी हिन्दू परम्परा के विधानों के समान ही होने लगे हैं। कई स्थितियों में विधिविधान की प्रमुखता उचित भी मालूम होती है। दोनों ही परम्पराओं का प्रारम्भिक स्रोत यद्यपि भिन्न-भिन्न रहा परन्त मध्यकाल तक आते-आते दोनों ही परम्पराएँ एक दूसरे से अत्यधिक प्रभावित हो चुकी थी। पूजा-प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि विधानों में ही यह समरूपता परिलक्षित होती है। आचार सम्बन्धी विधि-विधानों में तो आज भी आगमिक स्रोतों का ही पुट दिखाई देता है। विधि-विधानों के इसी बदलाव एवं वर्तमान पद्धति में बढ़ रहे उनके अत्यधिक प्रभाव ने मन में अनेक प्रश्न उपस्थित किए। आखिर जैन धर्म में विधि-विधानों का अस्तित्व कब से और कैसे आया? जैन संस्कृति के मूल विधान कौन-कौन से हैं? प्रारम्भ काल में विधि-विधान किए जाते थे या नहीं? आगम काल से अब तक विभिन्न विधि-विधानों का क्या स्वरूप रहा? विधि
SR No.006238
Book TitleJain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy