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________________ अलौकिक शक्तियों की उपासना यज्ञ मूलक कर्म मार्ग समर्पण मूलक भक्ति मार्ग देहदण्डन मूलक तप मार्ग उक्त सारिणी से यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों ही परम्पराओं का विकास भिन्न-भिन्न दृष्टियों से हुआ है। दोनों में मुख्य मतभेद का कारण कर्मकांड ही है। दोनों परम्पराओं में रही पारस्परिक भिन्नता को निम्न सारणी के माध्यम से और अधिक स्पष्ट जाना जा सकता है। प्रवर्त्तक धर्म 1. जैविक मूल्यों की प्रधानता 2. विधायक जीवन दृष्टि 3. समष्टिवादी 4. व्यवहार में कर्म का महत्त्व फिर भी दैविक शक्तियों की कृपा पर विश्वास 5. ईश्वरवादी 6. ईश्वरीय कृपा एवं लीलाओं पर विश्वास 7. साधना के बाह्य साधनों पर बल 8. जीवन का लक्ष्य स्वर्ग या ईश्वर के सान्निध्य की प्राप्ति 9. वर्ण व्यवस्था और जन्मना जातिवाद का समर्थन शोध प्रबन्ध सार ...5 10. गृहस्थ जीवन की प्रधानता 11. सामाजिक जीवन शैली राजतन्त्र का समर्थन 12. 13. शक्तिशाली की पूजा आत्मोपलब्धि चिंतन प्रधान ज्ञान मार्ग निवर्त्तक धर्म आध्यात्मिक मूल्यों की प्रधानता निषेधात्मक जीवन दृष्टि व्यष्टिवादी व्यवहार में नैष्कर्मण्यता का समर्थन करते हुए आत्मकल्याण हेतु वैयक्तिक पुरुषार्थ पर विश्वास अनीश्वरवादी वैयक्तिक प्रयासों पर विश्वास, कर्म सिद्धान्त का समर्थन आन्तरिक विशुद्धता का महत्त्व जीवन में मोक्ष या निर्वाण प्राप्ति का लक्ष्य जातिवाद का विरोध, कर्मों के आधार पर वर्ण व्यवस्था का समर्थन संन्यास जीवन की प्रधानता एकाकी जीवन शैली जनतन्त्र की समर्थन सदाचारी का पूजा
SR No.006238
Book TitleJain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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