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________________ 146... शोध प्रबन्ध सार मुद्रा और प्यास के लिए मुख के पास अर्धांजलि मुद्रा बनाने से दो विभिन्न भाषा-भाषी अपने मनोभावों को बोधगम्य बना सकते हैं। जहाँ पर भाषा का संप्रेषण असंभव हो वहाँ मुद्रा संकेत बहुउपयोगी हो सकता है। शरीर के हावभाव मनोव्यंजना को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त कर सकते हैं। भारतीय परम्परा में प्रत्येक शब्द एवं क्रिया को अध्यात्म के साथ जोड़ा जाता है। मुद्रा योग विज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण अंग है । अध्यात्म साधना हेतु एक आवश्यक चरण एवं शास्त्रीय विद्याओं में विशिष्टतम विद्या है। मानव के सर्वांगीण विकास के लिए मुद्रा योग संजीवनी औषधि है। योग साधक भारतीय ऋषि- महर्षियों ने मन, बुद्धि एवं शरीर को शांत रखने के लिए विभिन्न मुद्राओं का प्रयोग किया। उन प्रयोगों के आधार पर जो परिणाम उन्हें अनुभूत हुए उसी के मक्खन रूप में हमें विभिन्न परम्पराओं में विविध मुद्राओं का इतिहास प्राप्त होता है। भारतीय योग साहित्य प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्तों पर आधारित है। इसी कारण हमारी संस्कृति प्रकृति के समान ही अनादि और अनंत है। योग साधकों ने प्रकृति से भी ऊपर उठकर आध्यात्मिक तत्त्वों का अन्वेषण किया। सम्पूर्ण शरीर एवं शरीरगत आंतरिक तंत्रों का सूक्ष्म अन्वेषण कर मानव शरीर के रहस्यमयी तथ्यों को प्रकट किया। प्रत्येक मानव की आन्तरिक शक्तियाँ असीम है एवं कल्पना के विस्तृत क्षेत्र से भी परे हैं। भौतिक सुख-सुविधाओं में आनंद मग्न व्यक्ति उन शक्तियों को न पहचान सकता है और न ही उनका सार्थक उपयोग कर पाता है। इस तथ्य को विज्ञान भी स्वीकृत करता है कि मानव अपने मस्तिष्क का 3 से 4% ही उपयोग कर पाता है। ऐसा ही अन्य शारीरिक शक्तियों के बारे में भी जानना चाहिए। सामान्यतया अज्ञानजनित बुद्धि एवं मोह आदि के वशीभूत हुआ व्यक्ति बाह्य उपलब्धियों को ही वास्तविक मानता है। उन्हीं में रच-पचकर पूर्णता को अनुभूत करता है। इन विकट परिस्थितियों में मुद्रा एक ऐसी पद्धति है जिसके माध्यम से जड़-चेतन का भेद ज्ञान करते हुए यथार्थता के निकट पहुँचा जा सकता है। पौद्गलिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों का मूल्यांकन करते हुए अन्तरंग शक्तियों को जागृत करने हेतु प्रयत्न किया जा सकता हैं। इस उच्च दशा को पाने के लिए चित्त का एकाग्र होना आवश्यक है। एकाग्रता के द्वारा ही
SR No.006238
Book TitleJain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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