________________
136...शोध प्रबन्ध सार ___ जहाज किनारे पर तभी पहुँचती है जब उसका नाविक श्रेष्ठ हो। अन्यथा वह कभी मंजिल तक पहुँच ही नहीं सकती। इसी भाँति क्रिया अनुष्ठानों में अनुष्ठान कर्ता अधिकारियों का तदयोग्य होना नितांत जरूरी है अन्यथा वे अनुष्ठान कभी भी सफल एवं सुपरिणामी नहीं बन सकते।
जैन विधि ग्रन्थों में इस विषयक पर्याप्त विवेचन प्राप्त होता है। प्रतिष्ठा एक विराट अनुष्ठान है। इसका प्रभाव व्यावहारिक, सामाजिक, आध्यात्मिक स्तर पर स्पष्ट रूप से देखा जाता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर दूसरे अध्याय में प्रतिष्ठा करवाने के अधिकारी आचार्य, गृहस्थ, शिल्पी, स्नात्रकार आदि विविध व्यक्तियों की योग्यता का वर्णन किया है।
तीसरे अध्याय में प्रतिष्ठा सम्बन्धी आवश्यक पक्षों का मूल्यपरक विश्लेषण किया गया है। आज का युग शोधपरक वैज्ञानिक युग है। युवावर्ग प्रत्येक क्रिया अनुष्ठान करने से पूर्व उसके कारण, परिणाम, रहस्य, लाभ आदि के विषय में जानना चाहता है। वर्तमान की व्यस्त जीवनशैली में लोग उन्हीं कार्यों हेतु समय देना चाहते हैं जिससे उन्हें फायदा हो। वर्तमान की इसी मानसिकता को ध्यान से रखकर इस अध्याय का लेखन किया गया है।
वर्णित अध्याय में प्रतिष्ठा के शास्त्रोक्त स्वरूप एवं उसके हेतुओं का प्रतिपादन करते हुए प्रतिष्ठा सम्बन्धी विविध पक्षों पर चर्चा की गई है। जैसे कि प्रतिष्ठा कब करवानी चाहिए? सुप्रतिष्ठा के लिए आवश्यक तत्त्व क्या है? अंजनशलाका-प्रतिष्ठा से पूर्व कौनसे कृत्य करने चाहिए? प्रतिष्ठाचार्य की वेश-भूषा कैसी हो? प्रतिष्ठा संस्कार किनका किया जाए? वर्तमान प्रचलित प्रतिष्ठा महोत्सव का क्रम आदि? सबसे महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठा सम्बन्धी बोलियों का स्पष्टीकरण भी इस अध्याय में किया गया है। ___आज के युग में धर्म-कर्म, पूजा-उपासना आदि को उम्रदराज या रिटायर्ड लोगों का कार्य माना जाता है। लोगों के पास Threatre, Club, Mall, Game Zone, Community centres आदि में जाने का समय है परंतु धार्मिक स्थलों एवं अनुष्ठानों में न जाने के लिए उनके पास अनेक बहाने हैं।
चौथे अध्याय में जिनालय की महत्ता को दर्शाने हेतु उसके मनोवैज्ञानिक एवं प्रासंगिक स्वरूप की चर्चा की गई है। इस अध्याय में प्रतिष्ठा को एक मंगल अनुष्ठान सिद्ध करते हुए जिनप्रतिमा, जिनालय आदि की आवश्यकता बताई