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शोध प्रबन्ध सार ...107 कायोत्सर्ग के द्वारा ही संभव है। इसी अभिप्राय से कायोत्सर्ग के बाद प्रत्याख्यान का स्थान रखा गया है। __इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि सभी आवश्यक परस्पर में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं अत: आवश्यक का यह क्रम मौलिक एवं वैज्ञानिक है।
आवश्यकों की उपयुज्यता- षडावश्यक की उपयोगिता को वर्णित करते हुए अनुयोगद्वारसूत्र एवं उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि प्रथम सामायिक आवश्यक के द्वारा दीर्घकालीन अशुभ प्रवृत्तियों से दूर रहकर समतापूर्वक जीवन जीने का संकल्प किया जाता है इससे जीव सावद्य योगों से विरति को प्राप्त होता है। सामायिक का प्रयोजन मात्र दैहिक प्रवृत्तियों का निरोध करना ही नहीं है, अपितु प्रमुख रूप से मानसिक दुर्विचारों एवं आत्ममल का विशोधन करना है। सामायिक साधना के द्वारा ही मन को निर्विकल्प बनाया जा सकता है।
दूसरे चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक में सर्वोच्च दशा में अवस्थित तीर्थंकर के गणों का संस्तवन मिथ्यात्व रूपी अंधकार का विलय करता है और अंत:करण की निर्मलता रूप विशोधि को प्राप्त करवाता है।
विनय धर्म का मूल है। तीसरा वंदन आवश्यक विनय गुण का जागरण करता है। गुरुजनों को विनम्र भाव पूर्वक वंदन करने से अप्रतिमत पुण्य की प्राप्ति होती है। सभी के मन में सद्भाव का वर्धन होता है।
चौथे प्रतिक्रमण आवश्यक द्वारा अतिचारों की शुद्धि होने से प्रमाद दशा कम होती है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार प्रतिक्रमण करने वाला व्यक्ति व्रतों के छिद्रों को बंद कर देता है अर्थात व्रतों को दूषणता रहित करता है।
पाँचवें कायोत्सर्ग आवश्यक को व्रण चिकित्सा कहा गया है। छद्मस्थ अवस्था में प्रमादवश या अनायास ही अनेक प्रकार के दोष लगते हैं। आचार्यों के अनुसार वे दोष व्रण (जख्म) के समान हैं एवं कायोत्सर्ग मरहम-पट्टी रूप उपचार के समान। अतीत और वर्तमान के प्रायश्चित्त योग्य अतिचारों का विशोधन होने से आत्म निर्भार और प्रशस्त ध्यान में तच्चित्त होती है।
अन्तिम प्रत्याख्यान आवश्यक के माध्यम से भविष्य काल में किसी प्रकार की गलती या दुष्प्रवृत्ति न करने का संकल्प किया जाता है। प्रत्याख्यान करने से इच्छाओं का शमन ही नहीं वरन् तृष्णाजन्य मन की चंचलता समाप्त हो जाती