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76... शोध प्रबन्ध सार
इस अध्याय में उपाध्याय शब्द का विस्तृत अर्थ विश्लेषण करते हुए उपाध्याय के गुण, उपाध्याय पद का अधिकारी कौन हो सकता है ? उपाध्याय ही सूत्र वाचना के अधिकारी क्यों ? उपाध्याय पद की योग्यता किसमें है? उपाध्याय के अतिशय, उपाध्याय पद की आराधना से होने वाले लाभ ? उपाध्याय का वर्ण हरा क्यों? विविध संदर्भों में उपाध्याय पद की उपयोगिता आदि कई महत्त्वपूर्ण विषयों का अनुशीलन इस अध्याय में किया है, जिससे सामान्य वर्ग उपाध्याय पद की सूक्ष्मताओं से परिचित हो सकें।
जैनधर्म का मूल मन्त्र अर्थात नवकार महामंत्र पंच परमेष्ठि का वाचक है। आचार्य, उपाध्याय एवं साधु इन तीन का गुरु में समावेश होता है। अरिहंत परमात्मा के साक्षात अभाव में आचार्य तीर्थंकर के ही प्रतिनिधि होते हैं। कहा भी जाता है “तित्थयर समो सूरि" - आचार्य धर्म संघ के मेढीभूत आलंबन होते हैं।
अष्टम अध्याय में आचार्य पद का विस्तृत विश्लेषण करने हेतु आचार्य के अर्थ, आचार्य के गुण, आचार्य की महिमा, आचार्य पद की उपयोगिता, आचार्य पद के अधिकारी कौन? आचार्य की आशातना के दुष्परिणाम आदि कई आवश्यक बिन्दुओं का अन्वेषण शास्त्रीय आधार पर किया गया है।
श्रमणी संघ में महत्तरा एक गारिमामय पद है। शास्त्रों में कर्तव्य बुद्धि से श्रमणी संघ का संचालन करने वाली वयादि की अपेक्षा प्रधान साध्वी को महागणी कहा गया है। यह साध्वी संघ में उपस्थित विविध समस्याओं एवं उनकी आवश्यकताओं का समाधान करती है।
पदस्थापना की इस विशद चर्चा के अन्तर्गत नवम अध्याय में महत्तरा पद के तात्त्विक स्वरूप का दिग्दर्शन करते हुए जिनशासन के लिए यह पद किस रूप में सार्थक है? इनका प्रामाणिक एवं ऐतिहासिक उल्लेख किया गया है।
इसी के साथ आधुनिक संदर्भों में महत्तरा पद की उपयोगिता एवं तद्हेतु आवश्यक योग्यताओं का वर्णन करते हुए महत्तरा पद प्रदान करने हेतु शुभ मुहूर्त्त आदि विभिन्न घटकों की चर्चा भी की गई है।
दशम अध्याय में प्रवर्त्तिनी पद से सम्बन्धित अनेक पक्षों का सहेतुक निरूपण किया गया है।
अर्हत शासन में श्रमण संघ के लिए जैसे सात पदों की व्यवस्था है वैसे ही श्रमणी समुदाय में भी पाँच पदों के शास्त्रीय उल्लेख प्राप्त होते हैं। उनमें