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________________ 64... शोध प्रबन्ध सार निरतिचार पालन तथा उसका वात्सल्यपूर्ण संवर्धन आवश्यक है। इस कृति में वर्णित अध्यायों के माध्यम से श्रावक एवं श्रमण वर्ग मुनि जीवन के सूक्ष्म पक्षों से परिचित हो पाएगा। वर्तमान के भौतिकता एवं आधुनिकता युक्त परिवेश में भी विशुद्ध संयम पालन की प्रेरणा प्राप्त होगी एवं जिनशासन रूपी सरिता की श्रमण धारा निराबाध रूप से प्रवाहित रहेगी। खण्ड - 6 जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन संयमी जीवन की यात्रा विविध नियम मर्यादाओं का पालन करते हुए अनेक पड़ावों से होकर गुजरती है। मुनि के चारित्रिक जीवन का समुचित ढंग से निर्वाह हो सके एवं समस्त क्रियाएँ यथाविधि सम्पन्न की जा सके। इस हेतु इन मर्यादाओं एवं पड़ावों की विशिष्ट महत्ता है। भिक्षाचर्या मुनि जीवन की एक महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक क्रिया है। जब तक जीव संसार में परिभ्रमण कर रहा है आहार संज्ञा उसके साथ जुड़ी हुई है। कुछ समय के लिए वह भले ही आहार से निवृत्त या दूर रह जाए परंतु अंततोगत्वा निर्विघ्न जीवन यापन एवं संचालन के लिए उसे किसी न किसी रूप में आहार ग्रहण करना ही पड़ता है। आहार को मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकता माना गया है। जन्म के साथ ही शिशु का पहला रूदन आहार के लिए ही होता है। आहार की इसी आवश्यकता को देखते हुए मुनि जीवन में निर्दोष एवं सात्विक आहार की प्राप्ति पर बल दिया है। गृहस्थ से याचना आदि के द्वारा आहार आदि की प्राप्ति कर अपनी उदर पूर्ति करना भिक्षाचर्या कहलाता है। जैन मुनि के लिए भिक्षाचर्या का औचित्य - यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि मुनि को भारतीय समाज में उच्च स्थान दिया गया है। वह विशाल मिनार की भाँति सभी के लिए परम आदर्श एवं अनुकरणीय होते हैं। दिग्गज विद्वान और धनाढ्य व्यक्ति भी उन संत पुरुषों की चरण रज को शीर्षस्थ करते हैं। इस सामाजिक प्रतिष्ठा के बाद भी अधिकांश साधुजन अपना जीवन
SR No.006238
Book TitleJain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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