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शोध प्रबन्ध सार ...57
चातुर्मास करके शुद्ध बाह्य भूमि की गवेषणा प्राय: दुष्कर है। इन परिस्थितियों में किस प्रकार शुद्ध एवं निरतिचार जीवन का पालन किया जाए यह एक चिंतन का विषय है? हाइवे रोडों पर बढ़ते ट्रैफिक के कारण दुर्घटनाओं की संख्या भी बढ़ती जा रही है। इन परिस्थितियों में पूर्व काल की भाँति निरपेक्ष, निराश्रित एवं निरतिचार जीवन जीना प्राय: असंभव प्रतीत होता है।
फिर भी इन सब परिस्थितियों के बावजूद भी श्रमणाचार का यथाशक्य परिपालन स्वस्थ, सात्त्विक एवं तनाव मुक्त जीवन जीने के लिए राजमार्ग है। वैज्ञानिक दृष्टि से उबले हुए पानी का प्रयोग, जूते-चप्पल पहने बिना पैदल चलना, चिंता रहित अपरिग्रही जीवन, श्वेत वस्त्रों का परिधान, काष्ट पात्रों में मिला हुआ भोजन, केश लुंचन आदि सभी नियम शारीरिक दृष्टि से अति श्रेयस्कर एवं लाभकारी है। शारीरिक, मानसिक एवं प्राकृतिक समस्याओं के समाधान के लिए ब्रह्मास्त्र है।
मुनि जीवन सर्वाङ्गीण विकास का राजमार्ग- श्रमण जीवन सदाचार के अभ्यास वर्धन का प्रशस्त मार्ग है। अन्तरंग विकास के लिए यहाँ पर्याप्त चरण उपलब्ध होते हैं। इस भूमिका पर आरूढ़ होकर मानसिक एवं आध्यात्मिक शुद्धि के साथ सूक्ष्म चित्त वृत्तियों का विकास होता है। अमानवीय जीवन मूल्यों से ऊपर उठकर दोषों एवं अवगुणों का निरसन किया जा सकता है।
मुनि जीवन एक प्रकार की साधना है। चिन्तन और चरित्र में अत्यंत घनिष्ठता अथवा एकरूपता होना ही साधना है। साधना को उच्च स्तर तक पहुँचने के लिए मन: संस्थान को आत्मानुशासित कर पूर्वजन्म के कुसंस्कारों से जूझना पड़ता है। दुर्विचारों को सद्विचारों के माध्यम से परास्त करना पड़ता है। साधु जीवन में प्रतिलेखना आदि क्रियाओं को मनोनिग्रह पूर्वक निष्पादित करना भी एक प्रकार की साधना है।
श्रमण जीवन आराधना का सम्पुट होता है। आराधना अर्थात सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन में निरत होकर विश्व कल्याण की कामना करना। आराधना हेतु मन, वचन एवं काया इन तीन योगों की शुद्धि आवश्यक है।
उपासना (भक्ति योग) मुनि जीवन का अभिन्न अंग है। आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ने का सेतु है। उपासनात्मक पद्धति के द्वारा ही परमात्मा के साथ