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शोध प्रबन्ध सार
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नन्दी रचना, जैन संप्रदाय में एक सुप्रसिद्ध मांगलिक क्रिया है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में सम्यक्त्व व्रत, बारहव्रत, उपधान, छोटी दीक्षा, बड़ी दीक्षा, पदारोहण आदि विशिष्ट अनुष्ठान अरिहंत प्रतिमा की उपस्थिति में नन्दी रचना (समवसरण) के समक्ष किए जाते हैं। इसी महत्त्व को उजागर करते हुए तीसरे अध्याय में नन्दी रचना विधि का मौलिक निरूपण किया गया है।
इस अध्याय का मूल ध्येय शास्त्रोक्त विधि-विधानों की महत्ता एवं उपयोगिता को द्योतित करना है।
इस शोध खण्ड के चौथे अध्याय में प्रव्रज्या अर्थात दीक्षा विधि पर शास्त्रीय विचारणा की गई है। सदाचारमय जीवन जीते हुए अनासक्ति के अभ्यास एवं सांसारिक प्रपंचों से निवृत्त होने के लिए दीक्षा आवश्यक है। बाह्य जगत से हटकर एवं अन्तर जगत के दर्शक बनकर ही सदाचारी जीवन का अनुसरण किया जा सकता है।
प्रव्रज्या अर्थात मुनि जीवन में प्रवेश करने की विधि । इस विधि की महत्ता को उजागर करते हुए चर्चित अध्याय में प्रव्रज्या सम्बन्धी अनेक पक्षों पर अनुशीलन किया गया है। जैनाचार में जितनी महत्ता श्रमण जीवन की है उतनी ही तत्सम्बन्धी अवधारणाओं की है। इस अध्याय में दीक्षा ग्राही एवं दीक्षा दाता दोनों के विषय में जहाँ विविध पक्ष प्रस्तुत किए हैं वहीं तत्सम्बन्धी उपकरण एवं क्रियाओं के रहस्य आदि को भी उजागर किया है।
यह अध्याय दीक्षा विषयक शंकाओं का समाधान करते हुए संयमी जीवन की सूक्ष्मताओं से परिचित करवाता है ।
पाँचवें अध्याय में मण्डली तप विधि की तात्त्विक विचारणा की गई है। प्रायः सभी परम्पराओं में सामूहिक अनुष्ठान को श्रेष्ठ माना है। सामूहिक आराधना से भावोल्लास में शतगुणा वृद्धि होती है । मण्डली तप समूह में प्रवेश करने का Entry Pass है । मण्डली का सामान्य अर्थ है समूह या समुदाय । प्रतिक्रमण आदि सात आवश्यक क्रियाओं को सामूहिक रूप से सम्पन्न करने की अनुमति एवं योग्यता प्राप्त करने हेतु जो तप किया जाता है वह मण्डली तप कहलाता है। इसके बाद ही नवदीक्षित मुनि समुदाय के साथ प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ सम्पन्न कर सकता है। श्रमण जीवन में इस विधान का अत्यधिक महत्त्व रहा हुआ है।