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52... शोध प्रबन्ध सार
सदाचार का मूल ब्रह्मचर्य है । संयम जीवन का मूल इसी में समाहित है अतः सर्वप्रथम पहले अध्याय में ब्रह्मचर्य व्रतग्रहण विधि पर अनेक दृष्टियों से विचार किया है।
भारतीय धर्मों में ब्रह्मचर्य का सर्वोपरि स्थान है। उसे समस्त साधनाओं का मेरूदण्ड माना जाता है। साधक के जीवन की समस्त साधनाएँ ब्रह्मचर्य की उपस्थिति में ही फलीभूत होती है, अन्यथा मात्र शारीरिक दण्ड की प्रक्रिया बनकर रह जाती है। समस्त व्रतों में ब्रह्मचर्य का पालन करना दुष्कर है। इसी कारण इसे सर्वश्रेष्ठ माना है ।
प्रस्तुत अध्याय में इसी महत्ता को वर्धित करते हुए ब्रह्मचर्य का अर्थ, आधुनिक परिप्रेक्ष्य में उसकी उपादेयता, ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण के अधिकारी आदि विविध पक्षों पर विचार किया गया है। इसी के साथ वैदिक एवं बौद्ध परम्परा का इस विषयक अभिमत तुलनात्मक विवेचन के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
वर्णित अध्याय का लक्ष्य ब्रह्मचर्य व्रत की महिमा को सर्वत्र प्रसारित करते हुए जीवन को सदाचारी बनाने की प्रेरणा देना है ।
दूसरे अध्याय में क्षुल्लकत्व दीक्षा विषयक पारम्परिक अवधारणा को स्पष्ट किया गया है।
यदि गृहस्थ व्रती को सर्वविरति धर्म अंगीकार करना हो अर्थात प्रव्रज्या मार्ग पर आरूढ़ होना हो तो ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार के पश्चात क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए। यह प्रव्रज्या से पूर्व का साधना काल है। इसके माध्यम से मन को मुनि दीक्षा हेतु परिपक्व बनाया जाता है ।
श्वेताम्बर मतानुसार प्रव्रज्या इच्छुक को सर्वप्रथम तीन वर्ष के लिए ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करना चाहिए । फिर तीन वर्ष के लिए क्षुल्लक दीक्षा धारण करनी चाहिए। उसके बाद प्रव्रज्या स्वीकार करके फिर अंत में उपस्थापना ग्रहण करनी चाहिए। यह क्रम व्रताभ्यास एवं निर्दोष आचरण के लक्ष्य से बनाया गया है। वर्तमान में यह परम्परा दिगम्बर आम्नाय में देखी जाती है।
प्रस्तुत अध्याय में क्षुल्लक के विभिन्न अर्थों की मीमांसा करते हु क्षुल्लकत्व ग्रहण एवं प्रदान करने के अधिकारी कौन ? क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण करने हेतु श्रेष्ठ काल कौनसा ? इसे किस विधि से ग्रहण करें ? आदि की प्रामाणिक चर्चा ग्रन्थ आधार से की गई है ।