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________________ 37. श्रीगिरि ऋषिभाषित का सैंतीसवाँ अध्याय श्रीगिरि नामक ब्राह्मण परिव्राजक से सम्बन्धित है। यह अध्याय तेतलीपुत्र (10), बाहुक (14), उत्कटवादी (20), एवं पार्श्व (31) अध्ययन के समान पूर्णतः गद्यरूप में है। ऋषिभाषित के अतिरिक्त श्रीगिरि का उल्लेख न तो जैन साहित्य में कहीं उपलब्ध होता है और न बौद्ध एवं वैदिक साहित्य में ही। अतः श्रीगिरि के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में हमें कोई जानकारी किन्हीं भी स्रोतों से उपलब्ध नहीं है। ___ प्रस्तुत अध्याय के प्रथम भाग में हमें सृष्टि सम्बन्धी तीन सिद्धान्तों का उल्लेख मिलता है। 275 इसमें कहा गया है कि (1) सर्वप्रथम जल ही था उसमें अण्डा प्रकट हुआ, फिर लोक (सृष्टि) उत्पन्न हुआ और वह सश्वसित (जीवन युक्त) हुआ--ऐसा वरुण विधान नहीं है। यहाँ श्रीगिरि सृष्टि की जल एवं अण्डे से उत्पत्ति होने सम्बन्धी अवधारणा का खण्डन करते हैं। यह स्पष्ट है कि सृष्टि सम्बन्धी यह अवधारणा औपनिषदिक चिन्तन में उपस्थित थी। सूत्रकृतांग में भी इस अवधारणा को प्रस्तुत करके उसका खण्डन किया गया है।276 (2) सृष्टि सम्बन्धी दूसरी अवधारणा 'माया' की है—सृष्टि को माया से प्रसूत कहा जाता है, किन्तु श्रीगिरि इसका खण्डन करते हुए कहते हैं कि यह विश्व माया नहीं है। इस प्रकार इन दो अवधारणाओं का खण्डन करने के पश्चात् वे अपनी तीसरी अवधारणा शाश्वतवाद को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि (3) ऐसा नहीं था कि विश्व कभी नहीं था, कभी नहीं है अथवा कभी नहीं रहेगा। इस प्रकार यहाँ सृष्टि को शाश्वत स्वीकार किया गया है। यह अवधारणा पार्श्व की भी थी, जिसका भगवतीसूत्र (5/9) में महावीर ने भी समर्थन किया था। वैदिक परम्परा में यह अवधारणा मीमांसा दर्शन के निकट है। उपनिषदों में भी इसका उल्लेख मिलता है। श्रीगिरि के आचार सम्बन्धी उपदेशों से ऐसा लगता है कि वे वैदिक कर्मकाण्ड के समर्थक थे, फिर भी उनके द्वारा प्रस्तुत अग्निहोत्र (यज्ञ) में प्राणी हिंसा का विधान नहीं है। वे कहते हैं—उभय काल, उभय सन्ध्या में दूध, मक्खन, मधु, क्षार, शंख और समिधा को एकत्रित कर उन्हें समर्पित करता हुआ अग्निहोत्र कुण्ड को जागृत रखते हुए मैं रहूँगा। इसीलिए मैं यह सब कहता हूँ जिसे सुनकर साधक सूर्य के साथ गमन करे, जहाँ रात्रि हो जावे वहीं रुक जाये और सूर्य के उदित होने पर प्राची, प्रतीचि, उत्तर या दक्षिण दिशा में युगमात्र (चार हस्त प्रमाण भूमि) को देखता हुआ यथारीति विचरण करे। सूर्य के साथ ऋषिभाषित : एक अध्ययन 97
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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