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36. नारायण (तारायण) ऋषिभाषित का छत्तीसवाँ अध्ययन नारायण (तारायण) ऋषि के उपदेशों से सम्बन्धित है। जैन साहित्य में ऋषिभाषित के अतिरिक्त नारायण ऋषि का उल्लेख सूत्रकृतांग268 एवं सूत्रकृतांगचूर्णि269 में मिलता है। ऋषिभाषित में इनके नाम के पूर्व 'वित्त' विशेषण लगाया गया है, किन्तु इसका क्या तात्पर्य है यहाँ स्पष्ट नहीं है। सूत्रकृतांग में इनका उल्लेख नमि, असितदेवल, बाहुक आदि के साथ हुआ है। सूत्रकृतांग और ऋषिभाषित दोनों से यह स्पष्ट है कि ये जैनेतर परम्परा के ऋषि हैं, तथापि इन्हें जैन परम्परा में सम्मानित रूप में देखा जाता था। ___नारायण ऋषि के उपदेश का मुख्य प्रतिपाद्य क्रोधाग्नि की दुर्निवार्यता है।270 कहा गया है कि अग्नि को जल से शान्त किया जा सकता है, किन्तु क्रोधाग्नि का निवारण कठिन है। अग्नि तो एक ही भव (जीवन) को समाप्त करती है, किन्तु क्रोधाग्नि तो अनेक भवों को समाप्त करती है। अग्नि से जला हुआ शान्ति प्राप्त कर लेता है, किन्तु क्रोधाग्नि से जला हुआ तो बार-बार दुःख (अशान्ति) का अनुभव करता है। सामान्य अन्धकार तो ज्योति या मणि से दूर किया जा सकता है, किन्तु क्रोध रूपी अन्धकार तो दुर्निवार्य है। पुनः, क्रोध अपने को और दूसरों को दोनों को जलाता है। उसके कारण धर्म, अर्थ और काम तीनों ही पुरुषार्थ नष्ट हो जाते हैं अतः क्रोध का निरोध करना चाहिए।
यद्यपि जैन परम्परा में आठवें वासुदेव का नाम भी नारायण है, जिन्हें लक्ष्मण भी कहा गया है, किन्तु ऋषिभाषित के नारायण (तारायण) इनसे भिन्न हैं। इनकी पहचान वैदिक परम्परा के नारायण ऋषि से की जा सकती है। वैदिक या हिन्दू परम्परा में नारायण स्वयं ईश्वर का ही नाम है, किन्तु उसमें नारायण नामक ऋषि भी हुए हैं, जिन्हें भी ईश्वर का अवतार माना जाता है। सामान्यतया इन्हें नर-नारायण नामक ऋषि-युगल के रूप में जाना जाता है।271 इन्होंने बदरीकाश्रम में रहकर सहस्रों वर्षों तक तप किया है।272 शान्तिपर्व में नारद के साथ इनके संवाद का उल्लेख है।273 तैत्तिरीय आरण्यक का दसवाँ प्रपाठक नारायणोपनिषद् के नाम से प्रसिद्ध है।74
बौद्ध परम्परा में नारायण नामक ऋषि के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिलती है। अन्यत्र उपलब्ध विवरणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सूत्रकृतांग और ऋषिभाषित में उल्लेखित नारायण (तारायण) हिन्दु परम्परा के नारायण नामक ऋषि ही हैं। 96 इसिभासियाई सुत्ताई