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________________ इसी सन्दर्भ में श्वेतकेतु का उल्लेख आया है। वैदिक परम्परा में श्वेतकेतु को उद्दालक पुत्र कहा गया है। इन सभी सन्दर्भो से ऐसा लगता है कि बौद्ध परम्परा में इस कथानक को थोड़ा विकृत करके प्रस्तुत किया गया है। इन सब आधारों पर हम यह कह सकते हैं कि ऋषिभाषित, जातक कथा और उपनिषदों में उल्लेखित उद्दालक एक ही व्यक्ति है। जहाँ उद्दालक के ऋषिभाषित में उपलब्ध उपदेशों267 का प्रश्न है, वहाँ सर्वप्रथम उन्होंने क्रोधादि चार कषायों को वर्ण्य कहा है। जो इनका सेवन करता है वह संसार में परिभ्रमण करता है और जो इनका सेवन नहीं करता है वह अक्रोधित, निरहंकारी, अमायावी एवं अलोभी साधक त्रिगुप्त, त्रिदण्डविरत, गौरवरहित, चार विकथाओं से विरत, पाँच समितियों से युक्त और पाँच इन्द्रियों से संवृत होकर, शरीर संधारणार्थ एवं योग निर्वाहार्थ नवकोटि परिशुद्ध उद्गम-उत्पाद दोषरहित, विभिन्न ऊँच-नीच कुलों से प्राप्त परकृत, परनिसृत, विगत अङ्गार, विगत धूम, शस्त्रानीत, शस्त्र परिणत भिक्षा (पिण्ड), शय्या और उपधि का भोग करता है। इसके पश्चात् इसमें स्वार्थ और परार्थ की समस्या की चर्चा करते हुए आत्मार्थ के साधन का निर्देश दिया गया है। इनका मन्तव्य है कि आत्मार्थी ही सच्चे अर्थों में लोकमंगल कर सकता है। जो व्यक्ति अपनी वासनाओं और कषायों में नियन्त्रण नहीं रख पाता है, वह कैसे लोक-कल्याण (परार्थ) करेगा? आत्मार्थ के बिना परार्थ तो बन्धन का ही कारण बनता है। क्योंकि, परिशुद्ध आत्मा ही स्व-पर दोनों के लिए शान्ति प्रदाता होता है। इस अध्याय में पाँच इन्द्रियों, संज्ञाओं (मन की आकांक्षाओं), त्रिदण्ड, त्रिशल्य, त्रिगर्व और बावीस परीषहों को चोर कहा गया है, क्योंकि ये आत्मशान्ति रूपी धन की चोरी करते हैं। अतः अन्त में साधक को सर्वत्र जाग्रत् रहने का सन्देश दिया गया है। ___ इस अध्याय की विशेषता यह है कि इसमें जैन आचार की परम्परागत शब्दावली का ही प्रयोग देखा जाता है। अतः यह विचार हो सकता है कि क्या ग्रन्थकर्ता ने उद्दालक के मुख से अपनी ही मान्यताओं का प्रतिपादन करवाया है या उनकी अपनी मान्यताएँ ही थीं? साधक और बाधक प्रमाणों के अभाव में आज इस सम्बन्ध में निर्णयात्मक रूप से कुछ भी कह पाना कठिन है। फिर भी इस सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जैन परम्परा ने अपनी समकालीन परम्पराओं से पर्याप्त रूप से ग्रहण किया होगा। ऋषिभाषित : एक अध्ययन 95
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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