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वैदिक स्रोतों में भी मुख्यतः वायु को एक देव के रूप में ही स्वीकार किया गया है। मात्र महाभारत के शान्ति पर्व में वायु नामक एक प्राचीन ऋषि का उल्लेख है, जो शरशय्या पर पड़े हुए भीष्मजी को देखने आये थे। इसी प्रकार महाभारत के शल्य पर्व में वायु चक्र, वायु ज्वाल, वायु बल, वायु मण्डल, वायु रेता एवं वायुवेग नामक ऋषियों के उल्लेख हैं; किन्तु प्रथम तो ये पौराणिक ही हो जाते हैं, ऐतिहासिक नहीं। दूसरे इनकी वायु ऋषि से कोई संगति भी नहीं प्रतीत होती है। इसके अतिरिक्त महाभारत में ही वायु भक्ष नामक एक अन्य ऋषि का भी उल्लेख है, जो युधिष्ठिर की सभा में उपस्थित थे तथा जिनकी मार्ग में कृष्ण से भेंट हुई थी 232 | वैसे वायु भक्षी तापसों का उल्लेख औपपातिक में भी है। जहाँ तक ऋषिभाषित में वायु ऋषि के उपदेशों का प्रश्न है, वे मुख्य रूप से कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। वे कहते हैं कि जैसा बीज होता है वैसा फल होता है, अच्छे कर्मों का फल अच्छा और बुरे कर्मों का फल बुरा होता है । कोई भी कर्म निष्फल नहीं जाता है। कर्म का फल मरणोत्तर काल में कैसे मिलता है, इसे पुष्ट करते हुए कहा गया है कि पानी तो जड़ों को दिया जाता है, किन्तु फल शाखाओं पर लगते हैं। जिस प्रकार फल जहाँ सिञ्चन किया गया है, वहाँ न होकर अन्य क्षेत्र और काल में होता है, उसी प्रकार कृत-कर्मों का फल भी अन्य क्षेत्र और काल में होता है। कर्म सिद्धान्त के इस सामान्य प्रतिपादन के अतिरिक्त इस अध्याय में कोई नवीन तथ्य नहीं मिलता है।
31. पार्श्व
ऋषिभाषित के इकतीसवें अध्याय में अर्हत् पार्श्व के दार्शनिक विचारों का संकलन है। 233 यद्यपि जैनों की परम्परागत मान्यता तो यह है कि ये अर्हत् पार्श्व तेईसवें तीर्थंकर पार्श्व के काल में हुए एक प्रत्येकबुद्ध हैं और तीर्थंकर पार्श्व से भिन्न हैं। किन्तु, सभी विद्वान् इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि ये स्वयं तीर्थंकर पार्श्व ही हैं। इनके उपदेशों में चातुर्याम का प्रतिपादन इस मान्यता का पुष्ट प्रमाण है। 234 यद्यपि पार्श्व के सम्बन्ध में बौद्ध और वैदिक स्रोतों से स्पष्टतः कोई जानकारी नहीं मिलती है, किन्तु बौद्ध परम्परा में निर्ग्रन्थ ज्ञात-पुत्र के नाम से जो चातुर्याम संयम का प्रतिपादन हुआ है वह वस्तुतः पार्श्व का चातुर्याम ही है। इसी प्रकार बौद्ध साहित्य में बुद्ध के चाचा वप्प शाक्य के निर्ग्रन्थ परम्परा के अनुयायी होने की सूचना मिलती है। वप्प भी पार्श्व की परम्परा से ही सम्बन्धित रहे होंगे, क्योंकि महावीर की परम्परा तो उस समय विकसित हो रही थी । पार्श्व
ऋषिभाषित : एक अध्ययन 87