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की ऐतिहासिकता अनेक प्रमाणों से पुष्ट होती है और इसे अनेक पौर्वात्य और पाश्चात्य विद्वानों ने स्वीकार किया है। इस सम्बन्ध में मैंने अपने ग्रन्थ 'अर्हत् पार्श्व और उनकी परम्परा' में विस्तार से विचार किया है, अतः जिज्ञासु पाठकों से उसे वहाँ देखने की अपेक्षा की जा सकती है।235 जैनागम साहित्य में पार्श्व एवं उनकी परम्परा के सम्बन्ध में आचारांग,236 सूत्रकृतांग,237 समवायांग,238 भगवती,239 औपपातिक,240 राजप्रश्नीय,241 निरयावलिका,242 कल्पसूत्र,243 आवश्यकचूर्णि244 आदि में पाये जाते हैं। इसके अनेक कथा-ग्रन्थों में पार्श्व के जीवन-वृत्त का आंशिक रूप से या स्वतन्त्र रूप से उल्लेख है। उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग और भगवती में पार्श्व और महावीर की परम्परा के अन्तर को स्पष्ट किया गया है।245 मुख्य विवादास्पद प्रश्न थे-चातुर्याम और पाँच महाव्रत, सचेलता और अचेलता। किन्तु, इनके अतिरिक्त प्रतिक्रमण, अहिंसा सम्बन्धी प्रत्याख्यान के स्वरूप तथा सामायिक संयम, संवर, विवेक एवं व्युत्सर्ग के स्वरूप को लेकर भी मतभेद थे जिनकी चर्चा हमें सूत्रकृतांग और भगवती से मिलती है। भगवतीसूत्र के अनुसार कालस्यवैशिक पुत्र नामक पाश्र्वापत्य अनगार ने महावीर के संघ में प्रवेश करते समय पंच महाव्रतों एवं सप्रतिक्रमण धर्म के साथ-साथ नग्नता, मुण्डितता, अस्नान, अदन्तधावन, छत्ररहित एवं उपानह (जूते) रहित होना, भूमिशयन, फलक-शयन, काष्ठ-शयन, केशलोच, ब्रह्मचर्य, (भिक्षार्थ) परगृह-प्रवेश, लब्ध-अलब्ध में समभाव आदि नियमों को भी ग्रहण किया था।246 इससे स्पष्ट है कि ये नियम पार्श्व की परम्परा में अप्रचलित थे। छेद सूत्रों में मुनि आचार में छाता, जूते, चमड़े के थैले रखने एवं क्षुरमुण्डन सम्बन्धी जो विधान उपलब्ध होते हैं वे पार्खापत्यों के प्रभाव के कारण ही महावीर की परम्परा में आये थे। यह भी सत्य है कि पार्खापत्य श्रमणों की सूविधावादी और भोगवादी प्रवृत्तियों के कारण ही आगे चलकर पासत्थ (पार्श्वस्थ) शब्द शिथिलाचार का पर्याय बन गया। ज्ञाता और आवश्यकचूर्णि में पार्खापत्य परम्परा के अनेक श्रमणों एवं श्रमणियों के शिथिलाचारी होने के उल्लेख हैं।247 इस चर्चा का निष्कर्ष मात्र यही है कि पार्श्व एक ऐतिहासिक ऋषि हैं। उनकी परम्परा जो अपेक्षाकृत सुविधावादी थी, महावीर के युग में प्रचलित थी तथा अनेक पापित्य श्रमण महावीर के संघ में प्रविष्ट हो रहे थे।
जहाँ तक ऋषिभाषित में वर्णित पार्श्व के धर्म-दर्शन का प्रश्न है, वह निश्चित ही पार्श्व की धार्मिक एवं दार्शनिक मान्यताओं का प्रामाणिक एवं उपलब्ध प्राचीनतम रूप है। ऋषिभाषित में पार्श्व के दार्शनिक एवं आचार सम्बन्धी दोनों ही प्रकार के विचार उपलब्ध हैं। यहाँ यह भी स्मरण रखने योग्य 88 इसिभासियाई सुत्ताई