________________
धनुष और रथ से युक्त होता है और न शस्त्रधारी ही। सच्चे ब्राह्मण को न तो झूठ बोलना चाहिए और न ही चोरी करनी चाहिए। __इस समग्र चर्चा से हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि मातङ्ग महावीर
और बुद्ध के पूर्व अध्यात्ममार्ग के प्रणेता चाण्डाल कुलोत्पन्न एक प्रमुख ऋषि थे, जिनके उपदेश जैन, बौद्ध, और वैदिक तीनों ही परम्पराओं में आदर के साथ स्वीकार किये जाते थे।
27. वारत्तक
ऋषिभाषित209 के 27वें अध्याय में वारत्तक नामक अर्हत् ऋषि के उपदेशों का संकलन उपलब्ध होता है। जैन परम्परा में ऋषिभाषित के अतिरिक्त आवश्यकचूर्णि210, निशीथभाष्य211, बृहत्कल्पभाष्य212, आवश्यक हरिभद्रीय टीका213 आदि में भी इनका उल्लेख मिलता है। उपलब्ध अन्तकृतदशा के छठे वर्ग का नवां अध्ययन भी वारत्तक से सम्बन्धित है। इसमें इन्हें राजगृह का एक व्यापारी बताया गया है, जिन्होंने भगवान महावीर के समीप दीक्षा ग्रहण करके विपुल पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया था। इसके विपरीत आवश्यकचूर्णि, निशीथभाष्य, बृहत्कल्पभाष्य आदि में वारत्तक को वारत्तपुर नगर के अभयसेन नामक राजा का मन्त्री बताया गया है। आवश्यकचूर्णि के अनुसार ये धर्मघोष नामक आचार्य के पास दीक्षित हुए थे। आवश्यकचूर्णि के अतिरिक्त वारत्तक की कथा हमें ऋषिमण्डलवृत्ति में भी मिलती है। कथा के अनुसार मुनि जीवन में ही इन्होंने कोई भविष्यवाणी की थी, जिसके परिणामस्वरूप सुंसुमार नगर के राजा धुन्धुमार ने चण्डप्रद्योत पर विजय प्राप्त की। किसी समय चण्डप्रद्योत ने धुन्धुमार राजा के विजय के कारण को जानकर वारत्तक को नैमित्तिक मुनि के नाम से सम्बोधित किया। अपनी भाषा समिति सम्बन्धी भूल का ज्ञान होने पर वारत्तक मुनि ने पश्चात्ताप किया और मोक्ष को प्राप्त हुए। इस कथा में कितनी सत्यता है यह कहना कठिन है, किन्तु वारत्तक के सम्बन्ध में उपलब्ध यह उल्लेख इतना तो अवश्य सूचित करता है कि ये एक प्रभावशाली ऋषि रहे होंगे।
प्रस्तुत अध्याय में वारत्तक ऋषि के उपदेशों के रूप में एक आदर्श श्रमण को कैसा होना चाहिए, इस तथ्य का चित्रण उपलब्ध होता है। इनके अनुसार मुनि सांसारिक या गृहस्थों के सम्पर्क से विरत रहे, साथ ही स्नेह बन्धन को छोड़कर स्वाध्याय में तल्लीन रहकर, चित्त के विकार से दूर रहकर निर्वाण मार्ग में लगा रहे। जो मुनि गृहस्थों का कौतूहल, लक्षण, स्वप्न आदि से मनोरंजन 82 इसिभासियाई सुत्ताई