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करता है तथा दान आदि का प्रयोग करता है, भक्तों के चूडोपनयनादि वैवाहिक प्रसंगों में सम्मिलित होता है, राजाओं के साथ युद्ध में भाग लेता है, स्वयं की पूजा-मान्यता तथा लौकिक सुखों के लिये उक्त कार्य करता है, तो उपरोक्त सभी कार्य मुनि के जीवन के विपरीत हैं। अतः श्रमण धर्मजीवी अकिंचन बनकर प्रिय और अप्रिय को सहन करे और आत्म लक्ष्य का त्याग न करे। इस प्रकार वह जितेन्द्रिय, वीतराग तथा त्यागी बनता है तथा पुनः संसार में नहीं आता है। वारत्तक के उपर्युक्त उपदेश कुछ शाब्दिक परिवर्तनों के साथ हमें उत्तराध्ययन के सभिक्षु और पाप-श्रमण नामक अध्यायों में भी मिलते हैं। यद्यपि वहाँ इनके प्रवक्ता का स्पष्ट नामोल्लेख नहीं है।
बौद्ध परम्परा में वारण थेर का उल्लेख है214 जो जंगल में निवास करने वाले किसी भिक्षु का उपदेश सुनकर प्रव्रजित हए थे। यद्यपि वारत्तक से इनका कोई सम्बन्ध जोड़ पाना कठिन है। वैदिक परम्परा में वारत्तक का कोई उल्लेख हमें दृष्टिगत नहीं होता है। अतः अन्य स्रोतों के आधार पर इनके सम्बन्ध में कुछ बता पाना कठिन है।
28. आर्द्रक ऋषिभाषित215 का 28वां अध्याय आर्द्रक से सम्बन्धित है। आर्द्रक के प्राकृतरूप अद्दअ, अद्दग आदि रूप मिलते हैं। यद्यपि हमें यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि ऋषिभाषित में आर्द्रक और उद्दालक-ऐसे दो ऋषियों का वर्णन है। उद्दालक को प्राकृत में 'अद्दालअ' कहा गया है। अतः दोनों के संस्कृत रूपों की भिन्नता को ध्यान में रखना चाहिये। ऋषिभाषित के अतिरिक्त आर्द्रक का उल्लेख हमें सूत्रकृतांग216, सूत्रकृतांगनियुक्ति-17, सूत्रकृतांगचूर्णि218 में भी मिलता है। आवश्यक219 में भी इनका उल्लेख आर्द्रक कुमार के रूप में हुआ है। सूत्रकृतांग के अनुसार जब ये दीक्षित होने को जाते हैं तो इन्हें आजीवक, बौद्ध एवं हस्तितापस आदि अन्य श्रमण परम्पराओं के व्यक्ति मिलते हैं तथा अपनी परम्परा की विशेषता उनके सम्मुख प्रस्तुत करते हैं। सूत्रकृतांगचूर्णि में इनके पूर्वजीवन एवं वर्तमान-जीवन की कथा भी दी गई है। कथा के अनुसार ये आर्द्रकपुर के राजा के पुत्र थे। इन्हें अभय कुमार के द्वारा उपहार के रूप में ऋषभ की प्रतिमा भेजी गई थी, जिसे देखकर उन्हें वैराग्य जागृत हो गया। वसन्तपुर नगर में इन्हें खेल-खेल में एक लड़की अपना पति मान लेती है। अन्त में इन्हें कुछ समय पश्चात् उससे अपना विवाह करना पड़ता है। किन्तु, पुनः वैराग्य को प्राप्त कर
ऋषिभाषित : एक अध्ययन 83