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________________ देशोत्कट उन्हें कहते हैं जो आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए भी उसे अकर्ता आदि कहते हैं। वस्तुतः आत्मा को अकर्ता मानने पर पुण्य, पाप, बन्धन आदि की व्यवस्था नहीं बन पाती है। इसलिए इस प्रकार के विचारकों को देशोत्कट या आंशिक रूप से भौतिकवादी कहा गया है। इसी प्रकार सर्वोत्कट वे विचारक हैं जो तत्त्व की सत्ता को अस्वीकार करते हुए अभाव से ही सभी उत्पत्ति को सम्भव मानते हैं और यह कहते हैं कि कोई भी तत्त्व ऐसा नहीं है जो सर्वथा सर्वकालों में अस्तित्व रखता हो। इस प्रकार ये सर्वोच्छेदवाद का प्रतिपादन करते हैं, अतः इन्हें सर्वोत्कट कहा जाता है। उक्त पाँच प्रकार के उत्कटों अर्थात् भौतिकवादियों की चर्चा करने के पश्चात् सामान्य रूप से भौतिकवाद के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हुए शरीर से पृथक् किसी आत्मा की सत्ता को अस्वीकार किया गया है और यह कहा गया है कि शरीर का विनाश होने पर पुनः शरीर की उत्पत्ति नहीं होती अर्थात् पुनर्जन्म नहीं होता। यही जीवन एकमात्र जीवन है। न तो परलोक है, न सुकृत-दुष्कृत कर्मों का फल होता है, न तो पुनर्जन्म है और न पुण्य-पाप का फल ही है। पैर से लेकर केशाग्र तक जो शरीर है, वही जीव है। जिस प्रकार दग्ध बीजों से अंकुर नहीं निकलते उसी प्रकार शरीर के नष्ट हो जाने पर पुनः शरीर की उत्पत्ति नहीं होती। इस प्रकार यह अध्याय विशुद्ध रूप से भौतिकवादी दृष्टि प्रस्तुत करता है जिसे भारतीय दर्शन में चार्वाक दर्शन के नाम से जाना जाता है। वैसे इस प्रकार की भौतिकवादी दृष्टि का उल्लेख प्राचीन जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य में हमें विस्तार से उपलब्ध होता है। इस अध्याय में प्रतिपादित विचार हमें सूत्रकृताङ्ग175 और राजप्रश्नीय176 में उपलब्ध होते हैं। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा में पयासीसत्त177 में भी इसी प्रकार के विचारों का प्रतिपादन मिलता है। अतः यह अध्याय उस युग में प्रचलित भौतिकवादी जीवन दृष्टि का परिचायक कहा जा सकता है। समवायाङ178 में ऋषिभाषित के 44 अध्यायों का उल्लेख है। सम्भव है कि यह अध्याय ऋषिभाषित में बाद में जोड़ा गया हो, क्योंकि यही एकमात्र ऐसा अध्याय है जो अध्यात्मवाद के प्रतिपादक 44 अध्यायों से भिन्न है। भौतिकवादियों के लिए उत्कट शब्द का प्रयोग इसकी अपनी विशेषता है। इसी प्रकार भौतिकवादियों के इसमें जो दण्डोत्कट, रज्जूत्कट, स्तेनोत्कट, देशोत्कट और सर्वोत्कट ऐसे पाँच विभाग किये गये हैं वे भी अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं होते हैं। अतः यह ऋषिभाषित की अपनी विशेषता है। भारतीय दर्शन के ग्रन्थों में देहात्मवादी, इन्द्रियात्मवादी, प्राणात्मवादी, मनो आत्मवादी आदि जो प्रकार बताये गये हैं इनसे भिन्न ही हैं। 72 इसिभासियाई सुत्ताई
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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