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________________ के स्त्री- पर्व 66 में इनके उपदेश विस्तार से संकलित हैं। यदि हम इन उपदेशों को ध्यानपूर्वक देखें तो चाहे उनमें और ऋषिभाषित के उपदेशों में कोई शाब्दिक समानता न हो, पर वैचारिक समानता स्पष्ट रूप से देखी जाती है। इस आधार पर यह माना जा सकता है कि महाभारत में उल्लिखित विदुर और ऋषिभाषित के उल्लेखित विदुर एक ही व्यक्ति रहे होंगे। 18. वारिषेण कृष्ण ऋषिभाषित 167 का 18वाँ अध्ययन वारिषेण कृष्ण ( वरिसव कण्ह ) के उपदेशों से सम्बन्धित है। वारिषेण का उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त स्थानांग 168 में उपलब्ध होता है। समवायांग 169 में चार जिन - प्रतिमाओं ऋषभ और वर्धमान के साथ चन्द्रानन और वारिषेण का भी उल्लेख है । चन्द्रानन और वारिषेण को ऐरावत क्षेत्र का क्रमशः प्रथम एवं अन्तिम तीर्थङ्कर कहा गया है। इसके अतिरिक्त स्थानाङ्ग में काश्यप गोत्र की एक शाखा 'वारिसकण्हा' कही गयी है। अन्तकृद्दशा' 7170 में वारिषेण को वसुदेव का पुत्र कहा गया है तथा अन्तकृद् ऋषि कहा गया है। इससे इतना तो निश्चित हो जाता है कि ये कृष्ण के समकालीन और अरिष्टनेमि के युग के ऋषि हैं। किन्तु, ऋषिभाषित में इनके नाम के साथ कण्ह (कृष्ण) शब्द विशेष विचार के लिए प्रेरित करता है। वसुदेव के पुत्र के रूप में क्या ये स्वयं कृष्ण तो नहीं थे ? प्रस्तुत अध्याय में यह बतलाया गया है कि जो व्यक्ति प्राणातिपात से लेकर परिग्रह तक और अरति से लेकर मिथ्या - दर्शन शल्य तक के वर्ज्य (अनाचरणीय कर्मों या पापकर्मों) का सेवन करता है, वह हस्त-छेदन या पाद - छेदन आदि को प्राप्त होता है और जो इन वय (पापों) का सेवन नहीं करता है वह सिद्ध स्थान को प्राप्त करता है। ज्ञातव्य है कि हस्त-छेदन पादच्छेद आदि कथन ऋषिभाषित के अध्याय 9 एवं 15 में उल्लिखित हैं। अन्त में यह कहा गया है कि जिस प्रकार शकुनि (पक्षी) फल को छेद डालता है और शकुनि (व्यक्ति) राज्य को खण्ड-खण्ड कर देता है या कमल पत्र जल से निर्लिप्त रहता है उसी प्रकार साधक को कर्मफल को छेदकर पापकर्मों से निर्लिप्त रहना चाहिए । 171 महाभारत के भीष्मपर्व 1: में कृष्ण का एक नाम वार्ष्णेय भी बताया गया है । वृष्णि वंश होने के कारण उन्हें वार्ष्णेय कहा गया है। उपनिषदों और ब्राह्मणों172 में भी वृष्णि वंश के लोगों को वार्ष्णेय या वार्ष्णेय कहा गया है। श्री कृष्ण वृष्णिवंश से सम्बन्धित थे । यद्यपि वृष्णे॑ का प्राकृत वण्हि होता है 'वरिसव' ऋषिभाषित : एक अध्ययन 69
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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