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________________ अध्याय का नाम सोरिय है, किन्तु उपलब्ध विपाकसूत्र के आठवें अध्याय में सोरियदत्त का उल्लेख मिलता है । इस अध्याय में इन्हें सोरियपुर नगर के मछुआरे समुद्रदत्त का पुत्र कहा गया है। कथावस्तु के अनुसार एक बार इनके गले में मछली का काँटा फंस गया और अनेक प्रयत्नों के बाद भी इसे निकाला नहीं जा सका और इन्हें अति दुःख भोगना पड़ा । प्रस्तुत अध्याय में उल्लिखित सोरियदत्त का ऋषिभाषित के सोरियायण से इस आधार पर सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है कि सोरियायण ने अपने उपदेश में मुख्य रूप से ऐन्द्रिक विषयों में आसक्त न होने का उपदेश दिया है। यही बात प्रकारान्तर से विपाकदशा में भी कही गयी है। कि ऐन्द्रिक विषयों की पूर्ति में फंसकर ही जीव दारुण दुःख भोगता है। प्रस्तुत अध्याय में इन्द्रियों के वेग को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि व्यक्ति को श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, जिह्वा और स्पर्शेन्द्रिय के मनोज्ञ विषय प्राप्त होने पर आसक्त, अनुरक्त और लोलुप नहीं होना चाहिये। ये दुर्दान्त इन्द्रियाँ संसार भ्रमण का कारण है। राग-द्वेष से छुटकारा पाने हेतु कछुए के समान इन दुर्दान्त इन्द्रियों का संगोपन करना चाहिए। मनोज्ञ विषयों के प्राप्त होने पर राग नहीं करना चाहिए और न अमनोज्ञ विषयों के प्राप्त होने पर द्वेषित होना चाहिए। जो मनोज्ञ विषयों के प्रति राग और अमनोज्ञ के प्रति द्वेष करता है वह पापकर्म का बन्ध करता है। बौद्ध परम्परा [160 में सोरिय का उल्लेख सोरेय्य के रूप में मिलता है। वहाँ इन्हें श्रेष्ठपुत्र कहा गया है। यद्यपि बौद्ध परम्परा में सोरेय्य का जो उल्लेख है उसका जैन परम्परा के सोरिय से कोई निकट का सम्बन्ध नहीं देखा जा सकता। वैदिक परम्परा 7161 में हमें शौरि का उल्लेख शूरसेन के पुत्र के रूप में (द्रोण पर्व 144 / 7) मिलता है। इनका तादात्म्य वसुदेव से बताया गया है, जो कृष्ण के पिता कहे गये हैं, तब भी यह कह पाना कठिन है कि ऋषिभाषित के सोरियायण, पालि - साहित्य के सोरेय्य और महाभारत के शौरि एक ही व्यक्ति हैं या भिन्न व्यक्ति हैं। अपने नाम के आधार पर ये शूरषेण देश से सम्बन्धित रहे होंगे इतना माना जा सकता है। बृहदारण्यकोपनिषद्162 में आचार्यों की सूची में काषायन के शिष्य सौकरायण का नाम आता है, सम्भव है कि प्राकृत में यही सोरियायण बन गया हो। क्योंकि प्राकृत में 'क' का लोप होकर 'य' श्रुति होती है और 'स' का रूपान्तरण 'इ' में होता है । 17. विदुर ऋषिभाषित 163 के 17वें अध्याय में विदु (विदुर) के उपदेशों का संकलन है। ऋषिभाषित में इन्हें अर्हत् ऋषि कहा गया है। जैन साहित्य में ऋषिभाषित के ऋषिभाषित : एक अध्ययन 67
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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